जंगल राज: भारतीय सेना पर, शिवालिक जंगलों में फ़ायरिंग रेंज के गैर कानूनी इस्तेमाल के दौरान वन गुज्जरों की हत्या का आरोप

फोटो: मीर फैसल

उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में अधिकांश वन गुज्जरों की तरह 70 वर्षीय नूर मुहम्मद ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जंगलों में गुज़ार दी. वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक डेरा (मिट्टी और पेड़ की शाखाओं से बनी झोपड़ियों का एक समूह.) में रहते थे. आमतौर से एक झोपड़ी में एक वन गुज्जर परिवार रहता है. यह डेरा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले से 60 किमी दूर शिवालिक जंगल के चपड़ी क्षेत्र में आता है. 20 फीट से भी कम दूरी पर उनका पुत्र अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ रहता था. आस-पास के इलाके में, कुछ और झोपड़ियां नूर के भाइयों और उनके बच्चों की थी. 14 मार्च 2018 को उन्होंने अपनी बेटी का निकाह इसी डेरा में किया. लेकिन अगले ही दिन इस जंगल में 6 दशक बिताने के बाद नूर और उनके परिवार को यहाँ से जाना पड़ा. उन्होंने याद करते हुए बताया कि उस सुबह, शिवालिक जंगल में ही स्थित भारतीय सेना के असन फील्ड फायरिंग रेंज से बम का एक गोला उनके डेरे के पास आकर फटा. बचने के लिए भागते हुए नूर की 28 साल की बहू फ़ातिमा बगल के पेड़ से टकराए बम के छर्रों की चपेट में आ गई और 8 माह की गर्भवती इस बहू की मौत हो गई.

नूर ने याद करते हुए बताया “डेरा के नज़दीक चरती भैसों पर नज़र रखते हुए फ़ातिमा धूप में आराम कर रही थी. उससे कुछ ही सौ मीटर की दूरी पर मैं और मेरा बेटा झोपड़ी के नज़दीक थे. हमने बस अपना नाश्ता ख़त्म ही किया था और चाय का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी हमने विस्फ़ोट की आवाज़ सुनी” नूर ने आगे बताया कि उन्होंने जल्दी से अपने परिवार और पड़ोसियों के साथ नज़दीक की एक खाई में शरण ली. डेरा के अन्य लोग विस्फ़ोट से बचने के लिए एक सूखी नदी की ओर भागे. उस वक्त फ़ातिमा नूर के साथ खाई में थी जब उनसे कुछ ही फीट की दूरी पर स्थित एक पेड़ से बम टकराया. नूर ने कहा “इस बम से निकले टुकड़े उछल कर खाई की तरफ़ आये और फ़ातिमा के पेट में घुस गए.” फायरिंग 3 घंटे तक जारी रही और इसी बीच लहूलुहान फ़ातिमा ने अपने परिवार के सामने दम तोड़ दिया. इस विस्फ़ोट ने न सिर्फ़ फ़ातिमा और उसके अजन्मे बच्चे को मार डाला बल्कि नज़दीक में चर रहे चार बैलों और एक बकरी की भी जान ले ली.

फ़ातिमा के पति सामलूक और उनके चार और दो साल के दो बच्चे घर में बचे हैं. मैंने लगभग 5 घंटे तक नूर और उनके परिवार वालों से बातचीत की. इस दौरान सामलूक ने केवल एक ही बात बोली – “मेरी बेटी विस्फ़ोट की आवाज़ से बेहोश हो गई, और आज भी वह घटना उसे डराती है.” शेष समय वह केवल अपने बच्चों को खेलते हुए देखता रहा. वह साफ़ तौर पर बहुत दुखी लग रहा था.

नूर के पड़ोसी गुलाम नबी, जिन्होंने विस्फ़ोट के वक्त नदी की तलहटी में शरण ली थी, उसके बाद की घटनाओं को याद करते हुए कहते हैं “फायरिंग रुकने के बाद हमने देखा कि बिटिया मर चुकी थी. हमने तुरंत 100 नम्बर पर फोन किया और उनको इस मौत के बारे में बताया. हमने तीन घंटे तक इंतज़ार किया तब तीन पुलिस अधिकारी आये.” नबी ने बताया कि पुलिस अधिकारियों को अपनी मोटर साईकिल आधे रास्ते में जंगल में ही छोड़ कर पैदल चल कर आना पड़ा. पहूंचने के बाद पुलिस ने पंचनामा तैयार किया और परिवार से पूछा कि वे इसके बारे में क्या करना चाहते हैं. “हमने उनसे कहा कि हमें इसकी प्रक्रिया के बारे में कुछ भी पता नहीं है, और पुलिस को अपना काम करना चाहिए.” नूर ने आगे बताया “पुलिस ने कहा कि मृत शरीर को पोस्ट मार्टम के लिए शहर ले जाया जायेगा और पुलिस ने यह प्रक्रिया समझाई कि किस तरह से चोटों के परीक्षण के बेटी के शरीर की चीरफाड़ की जायेगी. उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि एम्बुलेंस यहां तक नहीं पहुंच सकती”. नूर ने आगे जोड़ा “इसका मतलब यह था कि अगर हम पोस्ट मार्टम चाहते हैं तो हमें ही मृत शरीर को वहां तक पहुंचना होगा.”

नूर ने कहा “हम इसके लिए कुछ भी नहीं करना चाहते थे. उसका शरीर पहले से ही काफ़ी क्षत विक्षत हो चुका था और इस रूप में उसके मृत शरीर को सड़क मार्ग से ले जाना हमारे लिए संभव नहीं था. मैंने पुलिस से कहा कि हमें पोस्ट मार्टम नहीं चाहिए.” नूर, सामलूक और परिवार के लोग फ़ातिमा के शरीर को एक चारपाई पर रख कर ,कठिन जंगली रास्ते पर दो घंटे चलते हुए वन गुज्जरों के कब्रिस्तान तक पहुंचे. फ़ातिमा के परिवार ने फ़ातिमा को उसी रात करीब 11 बजे दफ़ना दिया – जंगल की शांति में, पुलिस, अस्पताल से दूर और सेना की इस कार्यवाई पर सवाल उठाने वाले किसी भी मीडिया से दूर.

अपनी पुत्रवधु की मौत के बाद से, 70 साल के नूर मोहम्मद ने असन फील्ड फायरिंग रेंज से सेना द्वारा फायरिंग के कारण वन गुज्जरों के लिए उत्पन्न खतरों पर तत्काल ध्यान दिए जाने के लिए, अनेकों पत्र और आवेदन वन और ज़िला अधिकारियों को. फोटो: मीर फैसल

शिवालिक जंगलों में महीनों की जांच पड़ताल के दौरान मैंने पाया कि फ़ातिमा कोई अकेली वन गुज्जर नहीं थी जिसकी मौत असन फील्ड फायरिंग रेंज में फायरिंग के कारण हुई है. दो अन्य परिवारों ने बताया कि सेना के असन रेंज की फायरिंग के कारण उनके परिवार के दो लोग दिसम्बर 2023 में मारे गए थे. एक स्थानीय हिंदी दैनिक का अनुमान है कि इस फायरिंग के कारण 2002 से 2023 के बीच करीब 50 वन गुज्जरों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. जांच पड़ताल से यह सामने आया कि न सिर्फ सेना द्वारा 3 नागरिकों को मार डालने का मामला प्रकाश में आया बल्कि यह भी सामने आया कि कैसे सेना भारत के वन कानूनों का खुला उल्लंघन कर रही है और साथ ही गैर आदिवासी स्थानीय लोगों की मिली भगत से वन गुज्जरों को चुप कराने  की कोशिश कराया जा रहा है.

सार्वजानिक रूप से उपलब्ध मीटिंग के मिनट सहित वन मंत्रालय के दस्तावेजों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सेना असन फील्ड फायरिंग रेंज का इस्तेमाल वन अधिकार अधिनियम 2006 और 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत बिना कोई आवश्यक अनुमति लिए कर रही है. और फ़ातिमा को मारे जाने के समय सेना के पास कोई वैध लीज़ तक नहीं थी. हमने विस्तृत प्रश्नावली भारतीय सेना, रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय और स्थानीय जिला, वन व पुलिस अधिकारियों को भेजा, लेकिन इस लेख के प्रकाशित होने तक हमें कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला. अपने पुनर्वास के लिए वन गुज्जरों के अनेकों अनुरोधों और सहारनपुर जिला प्रशासन के बार-बार के आश्वासन के बावजूद बहुत से परिवार अभी भी फायरिंग रेंज के खतरे में जीवन जी रहे हैं. फ़ातिमा, गुलाम मुस्तफ़ा और मुहम्मद हनीफ़ की मौत भारतीय सेना के ख़िलाफ़ गंभीर आरोपों की कहानी से कहीं बड़ी है. यह वन गुज्जर समुदायों और उनके अधिकारों के प्रति राज्य और समाज की उदासीनता की एक कड़ी है.

वन गुज्जर मुस्लिम अर्द्ध घुमंतू पशुपालक समुदाय है जिन्हें गुर्जर भी कहा जाता है. यह समुदाय हिमांचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और जम्मू व कश्मीर के जंगलों में फैला हुआ है. जम्मू कश्मीर और हिमांचल प्रदेश में यह समुदाय अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है और अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में है. इसे भारत के वन कानून और आरक्षण की योजनाओं के तहत बहुत से अधिकार भी मिले हुए हैं. लेकिन उत्तराखंड और उप्र में वन गुज्जर, अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी में सूचीबद्ध है और अपने भौगोलिक निवास व वन अधिकारों पर उनके विवादित दावों के कारण वे भयंकर सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक बहिष्करण का सामना करते हैं. सहारनपुर से समाजवादी पार्टी के सांसद इमरान मसूद भी यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के वन गुज्जरों को पड़ोसी राज्यों के वन गुज्जरों की तरह ही जन जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा “वे एक ही जनजाति से आते हैं और मैं इस मुद्दे को संसद के आने वाले सत्र में उठाऊंगा.”

वन गुज्जर गोजरी बोली बोलते हैं जो पंजाबी और डोगरी भाषा का मिश्रण है. उनका बुनियादी पेशा गोजरी भैंस कही जाने वाले पहाड़ी भैंसों की नस्ल का पालन-पोषण है. अर्द्ध घुमंतू समुदायों के रूप में वे गर्मियों में हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों के ऊंचाई वाले जंगलों में चले जाते हैं और सर्दियों में शिवालिक जंगलों के पहाड़ी क्षेत्रों में लौट आते हैं. इस दौरान रास्ते में वे गांव व कस्बों में दूध और दुग्ध उत्पाद बेचते हैं. शिवालिक के जंगल 330 वर्ग किमी में फैले हुए हैं जिसमें उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के टिमरी, बड़कला, शाकुम्भरी और मोहंड के जंगली क्षेत्र आते हैं. उत्तराखंड के निर्माण से पहले ये सभी उप्र राज्य प्रशासन के अधीन आते थे.

विभाजन और नई राज्य सीमाओं के निर्माण के बाद, कई निगरानी चौकियां अस्तित्व में आ गई जिसने वन गुज्जरों की पहले से चली आ रही मुक्त आवाजाही को बाधित किया. हिमालय के पशुपालकों के ऊपर दशकों तक अध्ययन कर चुकी स्वीडेन की मानववैज्ञानिक परनाइल गूच के अनुसार “नयी राज्य सीमाओं के कारण वन गुज्जरों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली स्वीकृत जगह में काफ़ी कमी आई”. परनाइल गूच लिखती हैं – “आज़ादी के पहले और बाद की राजनीति ने पशुपालकों के आवागमन के लिए नयी सीमायें और प्रतिबन्ध बनादिए. इसने गुज्जर जैसे समुदायों को राज्यों के अन्दर कुछ पॉकेट में सीमित कर दिया, जिनकी नीतियां भिन्न भिन्न थीं. इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने वार्षिक प्रवास के दौरान अलग-अलग तरह के सरकारी अधिकारियों के साथ मोलभाव करना पड़ता था और साथ ही अलग-अलग तरीकों के नियमों और क़ानूनों का सामना करना पड़ता था.”

कुछ बरसों में स्थिति यह हो गयी कि वन गुज्जरों के केवल कुछ समूह ही गर्मियों में जंगल के रास्ते हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में प्रवास कर पाते थे. बहुत से वन गुज्जरों ने मुझे बताया कि पेड़ों की छंटाई और पशुओं के चरने के बाद, जंगल को फिर से विकसित होने और हरा भरा होने के लिए उनका प्रवास बहुत ज़रूरी है. शिवालिक के जंगल के निवासी गुलाम रसूल ने कहा “हम पीढ़ियों से जंगल की देखभाल कर रहे हैं. यह हमारी अमानत है.” आज तक बहुत से वन गुज्जर गर्मियों में प्रवास का प्रयास करते हैं. हालांकि, अब वे अलग-अलग रास्तों से जाते हैं. प्रायः वे जंगलों के रास्ते जाने की बजाय रात में अपने पशुओं के साथ सड़कों से जाते हैं. जबकि यहां उन्हें गौ रक्षकों (अतिवादी हिन्दू निगरानी समूह जो गाय सुरक्षा के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए जाने जाते हैं ) की हिंसा और प्रताड़ना का खतरा बना रहता है.

लेकिन, जंगल के संरक्षण के लिए वन गुज्जरों का अपने प्रवास पर ज़ोर खुद उन्हीं के खिलाफ हो गया. इसका इस्तेमाल करके वन विभाग ने वन अधिकार अधिनियम के तहत उन्हें मिलने वाली सुरक्षा से वंचित कर दिया. अनुसूचित जनजाति व अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम (वन अधिकारों को मान्यता देना), जिसे आमतौर से FRA या वन अधिकार अधिनियम कहा जाता है, को भारत सरकार ने 2006 में लागू किया. उस वक्त इसका स्वागत  “ऐतिहासिक अन्याय” को संबोधित करने वाले कानून के रूप में किया गया. इसमें अंततः वन निवासियों के पारंपरिक अधिकारों को पहचाना गया और उनकी पैतृक भूमि पर उनके अधिकार के लिए उन्हें सशक्त बनाया गया. इस कानून के तहत “वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति” और “दूसरे परंपरागत वन निवासी”  को कई तरह के वन अधिकार प्रदान किये गए हैं, जो मुख्यतः जंगल की ज़मीन पर रहते हैं वह अपनी जीविका के लिए इस पर निर्भर हैं. लेकिन व्यवहार में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के वन गुज्जर इन राज्यों के सम्बंधित वन विभागों की दया पर निर्भर है.

वन अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद, बहुत से वन गुज्जरों और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले नागरिक समाज समूहों ने वन प्राधिकरण के सामने यह दावा पेश किया है कि कानून के अनुसार उन्हें “अन्य परंपरागत वन निवासी समूह” की पहचान दी जाय. लेकिन दोनों राज्यों के वन विभागों का कहना है कि वन गुज्जरों का संरक्षण वन अधिकार अधिनियम के तहत नहीं आता. विद्वानों और विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी वजह यह है कि वन गुज्जर वनों में स्थाई रूप से नहीं रहते. वन गुज्जर मानते हैं कि उनके लिए शिवालिक की पहाड़ियां और ऊंचाई पर स्थित पहाड़ एक ही हैं. नूर का कहना है – “हम जंगलों में इन सीमाओं, इन सरकारों और सेना के बनने के पहले से रहते आये हैं.”

राइट्स एंड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट द्वारा समर्थित 2019 के एक अध्ययन से पता चलता है कि उत्तराखंड में वन अधिकार अधिनियम के तहत जो 6,500 से अधिक दावे दर्ज हुए हैं, उसमें राज्य सरकार ने एक भी व्यक्ति वन अधिकार या सामुदायिक वन अधिकार नामित नहीं किया है. यदि उन्हें सामुदायिक अधिकार मिल जाता तो वन गुज्जर डेरा को राजस्व का दर्जा मिल जाता और इसके परिणाम स्वरूप वे वन विभाग की बजाय राजस्व विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ जाते. जिससे उन्हें नागरिक सुविधाओं जैसे बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं मिल जाती. लेकिन जहां वन गुज्जरों की याचिकाओं को लगातार नज़रंदाज़ किया जा रहा है, वहीं महज 2018 में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने टोंगिया वन निवासी समुदाय के सदस्यों वाले 23 गाँव को राजस्व का दर्ज़ा प्रदान किया है. जिसमें से 3 गाँव सहारनपुर के जंगलों में स्थित हैं.

एक ख़ास मानवशास्त्रीय विकास अध्ययन, वन गुज्जरों के लिए वन अधिकार न मिलने को इस रूप में विश्लेषित करता है. वन गुज्जर में “वन” अपेक्षाकृत नया जोड़ा गया है. और यह पशुपालक समुदायों के बीच सिर्फ़ मुसलामानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. जबकि इस क्षेत्र में यह समुदाय सदियों से रह रहा है. जैसा कि गूच और दूसरे तमाम विद्वानों ने लिखा है कि 1980 से पहले आधिकारिक दस्तावेजों में गुज्जर के साथ वन उपसर्ग नहीं मिलता, जो मुस्लिम घुमंतू समूहों को हिन्दू गुज्जर से अलग करता है. अभी हाल तक उत्तरी उत्तर प्रदेश से लेकर जम्मू तक पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले सभी गुज्जरों को “जम्मू वाला गुज्जर” कह कर बुलाया जाता था. जिसका मतलब जम्मू के बकरवाल गुज्जर जनजाति से निकले जातीय समुदाय से था. यहां तक कि दो दशक पहले चराने के परमिट दस्तावेज में भी वन गुज्जरों को जम्मू वाला गुज्जर कहा गया है.

कई वन गुज्जरों ने मुझसे कहा कि वे अपने नाम के आगे वन उपसर्ग लगाना पसंद नहीं करते. उनका मानना है कि यह उपसर्ग लगा कर उन्हें दिल्ली और हरियाणा के गुज्जरों से अलग किया जाता है. जिनके पास राजनीतिक पहुंच और संसाधन है. वन गुज्जर ट्राइबल युवा संगठन (2018 में स्थापित एक सामुदायिक युवा संगठन) की केन्द्रीय कमिटी के एक सदस्य के अनुसार (जिन्होंने अपनी पहचान ज़ाहिर न करने का अनुरोध किया है) वन उपसर्ग उन्हें उनकी गुज्जर पहचान से अलग कर देता है. उन्होंने कहा कि  “इसके बाद अब हम जंगल में रहने वाले महज जंगली अपराधी बन जाते हैं.” आगे उन्होंने बताया कि “नौकरशाही के लिए हमारी मुस्लिम पहचान ही काफ़ी है और देश के इस हिस्से में जो राजनीतिक माहौल है उसमें किसी के पास भी इतनी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है कि वह हमारी मदद करता दिखना चाहे.”

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय सेना के फायरिंग रेंज के खतरों के प्रति वन गुज्जरों की याचिका अनुत्तरित ही रह गई.

अक्टूबर 2019 में नूर ने सहारनपुर ज़िला मजिस्ट्रेट को एक पत्र लिखा था. उसी पत्र का एक हिस्सा सुनाते हुए वह कहते हैं – “आदरणीय महोदय, हम आपसे विनम्रता पूर्वक यह गुज़ारिश करते हैं कि सुरक्षा के लिहाज से जहां भी आपको उचित लगे हमारा पुनर्वास कर दिया जाए जिससे हम इस खूनी मौत के जबड़े से दूर शान्ति पूर्वक रह सकें.” यह पत्र उन्होंने मुड़े-तुड़े राशन के झोले से निकाला था जिसे उन्होंने झोपड़ी की छत में एक शाल से बने हुए एक ताड़ में रखा हुआ था. इस राशन के झोले में बहुत से दस्तावेजों और आवेदनों की वे प्रतियां रखी हुई थी जिसे नूर ने राज्य और वन प्राधिकरण को लिखी थीं. अक्टूबर में लिखे अपने पत्र में भी 70 वर्षीय नूर ने जिला मजिस्ट्रेट को याद दिलाया था कि उन्होंने अनेकों बार सेना की फायरिंग और इससे वन गुज्जरों के सामने उत्पन्न खतरे के बारे में तुरंत ध्यान दिलाने का प्रयास किया था. उन्होंने विस्तार से यह बताया था कि जंगल में सेना के आने के बाद से ही उन लोगों के लिए ज़िन्दगी कितनी कठिन हो गयी है.

पत्र के हाशिये पर नज़दीक के सफ़ीपुर गांव के प्रधान ने लिखा था कि “श्रीमान जी आवेदक मेरे क्षेत्र का एक वन गुज्जर है और उनके लिए यह बहुत ही कठिन समय है. मैं अनुरोध करता हूँ कि कृपया उनकी समस्याओं का समाधान निकाला जाए.” नूर को विश्वास था कि गांव के स्थानीय चुने हुए प्रधान  की  सिफ़ारिश के कारण उनका आवेदन अंततः सुना जाएगा. लेकिन मजिस्ट्रेट के ऑफिस से उन्हें कभी भी कोई उत्तर नहीं मिला. फ़ातिमा की मौत के बाद से ही नूर ने वन अधिकारियों, मजिस्ट्रेटों, विधायकों, सांसदों और मुख्यमंत्री को आवेदन लिखे. किसी ने भी उत्तर नहीं दिया.

चार साल बाद 11 वर्षीय मोहम्मद हनीफ़ जब अपने परिवार की तीन भैंसों को चरा रहा था तो उसे फुटबॉल के आकार का धातु का एक गोला मिला. हनीफ़ बड़कला जंगल क्षेत्र के नज़दीक, शाहपुर गाडा गांव के बाहरी हिस्से में अपने माता पिता और तीन भाई बहनों के साथ एक डेरा में रहता था. जब उसे धातु का यह गोला मिला, तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी. उसने इस गोले को उठाया और घर ले आया. झोपड़ी में पहुंचने पर उसने अपने मवेशियों को अपने घर से लगभग 50 मीटर दूर एक शेड में बाँध दिया और उसी शेड में एक नांद में धातु के इस गोले को रख दिया. दूसरे दिन भोर में जब हनीफ़ अपने इस नए खिलौने के साथ खेलने गया तो वह फट गया. यह खिलौना असन फील्ड फायरिंग रेंज से दागा गया एक बम था, जो उस वक्त फटा नहीं था. 13 दिसम्बर 2023 को हनीफ़ की मौत हो गई. उसके शरीर के चीथड़े उड़ गए.

वन गुज्जर ट्राइबल युवा संगठन की केन्द्रीय समिति के सदस्य ने यह ब्यौरा उस इलाके के अपने प्रतिनिधि से सुना था. हनीफ़ के पिता तालिब हुसैन ने अपने बेटे की मृत्यु की इन परिस्थितियों की पुष्टि की लेकिन इस पर चर्चा करने से इंकार कर दिया. हनीफ़ की पोस्टमार्टम रिपोर्ट (जिसकी एक कॉपी पोलिस प्रोजेक्ट के पास है) में दर्ज है कि “हनीफ़ की मृत्यु विस्फोट से लगी घातक चोटों के कारण शॉक और अत्यधिक रक्तस्राव से हुई.” मरने से पहले लगी घातक चोटों के बारे में इसमें लिखा है कि “विस्फोट के कारण हुई चोटों के निशान पूरे शरीर पर हैं और शरीर का जो अंग-भंग हुआ उसके बारे में भी ब्यौरा दर्ज है. इस विस्फोट में हुसैन की एक भैंस भी मारी गई. 13 दिसंबर को जिला पशु चिकित्सक द्वारा जारी किये गए पशु मृत्यु सर्टिफिकेट में कहा गया है कि 6 माह की गर्भवती भैंस “गोली के घावों” के कारण मरी.

11 साल के हनीफ़ की बम विस्फोट में हुई मौत के साथ ही परिवार की भैंस की भी मौत हुई. पशु मृत्यु सर्टिफिकेट में दर्ज है कि 6 माह की गर्भवती भैंस गोली के घावों के कारण मारी गई. तस्वीर : शरजील उस्मानी

केन्द्रीय कमिटी के सदस्य के अनुसार पुलिस ने तालिब हुसैन पर बिना अनुमति के सेना की किसी भी संपत्ति पर हाथ लगाने की सूरत में उस पर मुकदमा करने की धमकी दी थी, लेकिन तुरंत बाद ही इस धमकी को वापस ले लिया. “उन्होंने धमकी इसलिए वापस ली क्योंकि अगर यह सूचना कि सेना ने इस तरह के विस्फोटों को जंगल में छोड़ रखा है, बाहर आती तो इससे उनके लिए बहुत समस्या खड़ी हो जाती.” सदस्य ने आगे कहा “तालिब के बच्चे के मरने के कारण सहानुभूतिवश उन्होंने यह धमकी वापस नहीं ली थी.”

दो हफ्ते बाद, सेना की फायरिंग में एक और वन गुज्जर की मौत हो गई. 29 दिसम्बर को दिन में करीब साढ़े ग्यारह बजे सेना फायरिंग में एक गोली झोपड़ी की मोटी मिट्टी की दीवार को चीरती हुई गुलाम मुस्तफ़ा को लगी. उनकी पूरी पीठ और कूल्हे का हिस्सा क्षत विक्षत हो गया. उनकी रीढ़ और दूसरे अंग पूरी तरह कुचल गए और मौके पर ही उनकी मौत हो गयी. इस तरह, अंततः, 55 साल के गुलाम मुस्तफ़ा ने अपने शरीर को ढाल बनाते हुए अपनी 11 साल की बेटी हलीमा को बचा लिया.

इसी साल जून में जब मैं इस परिवार से मिला तो हलीमा सदमे में थी. और इस घटना के बारे में बात करने में अक्षम थी. उसकी माँ रहन्नुमनिसा ने बताया “इस घटना के बाद उसने बात ही करना बंद कर दिया है.” मुस्तफ़ा के भाई गुलाम नबी जो नूर के पड़ोसी भी हैं, उस दिन फायरिंग के समय डेरा पर मौजूद थे. नबी ने अपने भाई की मृत्यु की परिस्थितियों को याद करते हुए बताया – “गुलाम एक अन्य डेरा से एक निकाह समारोह से तुरंत लौटे थे. जब उन्हें गोली लगी वह तुरंत मर गए और हलीमा बेहोश हो गई. जब हमें उनका शरीर मिला तो हमने सेना के अधिकारियों और पुलिस को सूचित किया.”

मिर्जापुर पुलिस स्टेशन की जनरल डायरी में (जिसकी एक कॉपी पोलिस प्रोजेक्ट के पास है) में दर्ज ब्योरे के अनुसार अधिकारी मौकाए वारदात पर शाम 4.18 बजे पहुंचे. नबी ने बताया “पुलिस ने आने के बाद हमें धमकाया कि हम शव को दफना दें. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि उनकी मृत्यु पेड़ से गिरने के कारण हुई थी.” नबी ने आगे बताया कि खबर सुन कर उत्तराखंड व हिमांचल प्रदेश के जंगलों में रहने वाले वन गुज्जर उनके डेरा पर इकठ्ठा हो गए और वे मुस्तफ़ा के शव को मुस्तफ़ा के नष्ट हो चुके घर से 10 किमी दूर मिर्जापुर पुलिस स्टेशन ले गए.

कई घंटों के विरोध के बाद, अंततः, पुलिस अपनी रिपोर्ट में  मुस्तफ़ा की मृत्यु के कारण को बदलने के लिए तैयार हुई. मिर्जापुर पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर ने स्टेशन की जनरल डायरी के ब्योरे में दर्ज किया “आज दिनांक 29.12.23 को दिन में करीब 11.30 बजे सेना के अभ्यास के दौरान मिर्जापुर पुलिस स्टेशन के तहत बड़कला खोल में रहने वाले गुलाम मुस्तफ़ा के ऊपर सेना के अभ्यास की कोई चीज़ गिरी और गुलाम मुस्तफ़ा की मौत हो गयी.” पुलिस और अस्पताल के दस्तावेज बताते हैं कि स्टेशन हाउस अफसर राजेंद्र प्रसाद ने सहारन पुर जिला मजिस्ट्रेट को उस दिन लिखा और रात में ही पोस्टमार्टम करने के अनुमति मांगी ताकि “कानून व्यवस्था” की स्थिति न बिगड़े. डीएम की अनुमति से मुस्तफ़ा के शव को 30 दिसम्बर की भोर 4 बजे सहारनपुर जिला अस्पताल भेजा गया.

हनीफ़ की रिपोर्ट की तरह ही इस रिपोर्ट में भी यही कहा गया कि मुस्तफ़ा की “मौत मृत्यु पूर्व लगी घातक चोटों के परिणामस्वरूप शॉक और अत्यधिक रक्तस्राव से हुई.” रिपोर्ट में चोट को इस रूप में व्ख्यायित किया गया है – “ कूल्हे पर 12×15 सेमी आकार का एक बड़ा कटा हुआ घाव, हड्डी के गहरे किनारे अनियमित, बाईं श्रोणि की हड्डी में अन्तर्निहित फ्रैक्चर के साथ हड्डी के टुकड़े मौजूद हैं.” पोस्ट मार्टम करने के क्षेत्र में करीब एक दशक का अनुभव रखने वाले एक फोरेंसिक विशेषज्ञ ने मुस्तफ़ा की रिपोर्ट का परीक्षण किया और अपनी पहचान न बताये जाने की शर्त पर बताया कि रिपोर्ट में एक ख़ास चीज़ गायब है – “यदि पीड़ित व्यक्ति को पीछे से कोई शेल लगती है और दूसरी तरफ से बाहर नहीं निकलती तो इसका मतलब है कि वह चीज़ शरीर के अन्दर ही मौजूद है लेकिन इस रिपोर्ट में इस शेल के बारे में कहीं भी ज़िक्र नहीं है.” चूंकि, पुलिस रिपोर्ट इस बात को दर्ज करती है कि मुस्तफ़ा की मौत सेना की फायरिंग की वजह से हुई है, इसलिए पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में मृत्यु के कारण के विवरण में शेल की अनुपस्थिति बहुत स्पष्ट है.

प्रश्नावली शिवालिक डिवीज़न की डीएफ़ओ श्वेता सैन, सहारनपुर के जिला मजिस्ट्रेट मनीष बंसल, बेहात के भूतपूर्व विधायक नरेश सैनी को भेजी गई. लेकिन इस लेख के प्रकाशित होने तक कहीं से भी उत्तर नहीं मिला. यदि कोई जवाब मिलता है तो इस लेख को अपडेट कर दिया जायेगा.

गुलाम मुस्तफ़ा की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में दर्ज है कि “ कूल्हे पर 12×15 सेमी आकार का एक बड़ा कटा हुआ घाव, जो हड्डी तक गहरा है.” लेकिन इसमें इस बात को छोड़ दिया गया है कि इस घातक चोट का कारण क्या था. तस्वीर: शरजील उस्मानी

दशकों से भारतीय सेना अपनी फायरिंग रेंजों को स्थापित करने के लिए ज़मीन पाने का संघर्ष कर रही है. एक समय पूरे देश में सेना के पास 104 फील्ड फायरिंग रेंज थे, इनमें से 12 को अधिगृहित कर लिया गया था और शेष 92 को अधिसूचित हो गया था. 2014 तक आते-आते फायरिंग रेंज की संख्या घट कर 51 रह गयी. इससे प्रशिक्षण में दिक्कतें पैदा होने लगी और उन्हें सिमुलेशन पर निर्भर होने को बाध्य होना पड़ा. 2008 में हिन्दुस्तान टाइम्स ने रिपोर्ट किया कि देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकेडमी के 600 छात्रों को निर्णायक बैटल फील्ड प्रशिक्षण से लगभग वंचित होना पड़ा क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने फायरिंग रेंज के इस्तेमाल की अनुमति देने से इंकार कर दिया. अंततः कुछ जोड़-तोड़ के कारण उन्हें महज 3 दिन के लिए फायरिंग रेंज के इस्तेमाल की अनुमति मिल पाई. रिपोर्ट का कहना था कि “कैडेट्स को रॉकेट लांचर और भारी कलिबर मोर्टाज” को दागने के प्रशिक्षण के लिए असन रेंज परीक्षण बहुत ही महत्वपूर्ण था.

आधिकारिक तौर पर सेना शिवालिक के जंगलों में पहली बार 1995 में आई. उसी साल के अगस्त में, असन फील्ड फायरिंग रेंज की स्थापना के लिए “Manoeuvres Field Firing and Artillery Practice Act 1938” के तहत सेना ने जंगल की 42000 हेक्टेयर की ज़मीन लीज़ पर हासिल की. यह फायरिंग रेंज दो भागों में बंटी है. 25885 हेक्टेयर क्षेत्र उत्तर प्रदेश में और शेष उत्तराखंड में है. यहां मुख्यतः, देहरादून स्थित इन्डियन मिलिट्री अकादमी के कैडेट्स को प्रशिक्षित किया जाता है. वन विभाग के दस्तावेजों में जंगल में सेना की मौजूदगी को राष्ट्रीय सुरक्षा ज़रूरत के रूप में दर्ज किया गया है.

सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार फील्ड फायरिंग रेंज सेना के नए सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए और उन्हें युद्ध के लिए तैयार करने के लिए महत्वपूर्ण होती है. वन गुज्जर बताते हैं कि जब पहली बार यह स्थापित हुआ तब असन रेंज में मुख्यतः राइफल फायरिंग और कुछ अन्य युद्ध प्रशिक्षण दिया जाता था, जिससे जंगल और विशेषकर वहां पर वन गुज्जरों का जीवन ज्यादा प्रभावित नहीं होता था. नूर ने बताया कि “पहले वे 200 मीटर दूर के लक्ष्य को भेदने के लिए राइफल से फायर करने का प्रशिक्षण करते थे. वे टीमें भी बनाया करते थे. इसमें एक टीम छिपती थी और दूसरी टीम को उन्हें खोजकर उनपर आक्रमण करना होता था.

साल दर साल नूर और दूसरे वन गुज्जरों को सेना के प्रशिक्षण के बारे में विस्तार से पता चला. उन्होंने ध्यान दिया कि आने वाले वर्षों में प्रशिक्षण सत्र के दौरान ज्यादा खतरनाक गोला बारूद का इस्तेमाल होने लगा है. ज़्यादातर वन गुज्जर जिनका मैंने साक्षात्कार लिया, वे अब विभिन्न तरीके के हथियारों को पहचान सकते थे और कुछ तो उन हथियारों का इस्तेमाल करने वाली विभिन्न टीमों को भी पहचानते थे. नूर ने बताया – “वे यहां पर तीन मुख्य विस्फोटकों का इस्तेमाल करते हैं. जिससे फ़ातिमा मरी वह 12 किलो का था. इसका आकार एक पूंछवाले हेलीकाप्टर या एक राकेट की तरह होता है. जब यह फटता है तो सभी दिशाओं में इसका असर होता है.”

पोलिस प्रोजेक्ट ने मिले हुए दस्तावेजों का विश्लेषण किया तो पाया कि असन रेंज की पहली लीज़ 2005 में ख़त्म हुई और उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों सरकारों ने 2007 में अगले 10 सालों के लिए इसका नवीनीकरण कर दिया. इन दोनों सरकारों से अनुमति लेने के अलावा सेना ने पर्यावरण मंत्रालय, जंगल और क्लाइमेट परिवर्तन की परामर्श समिति (FAC) से भी इसकी अनुमति ले ली. यह एक सरकारी निकाय है जिसे जंगल की ज़मीन में गैर वन उद्देश्य के लिए, किसी भी परिवर्तन हेतु किसी प्रस्ताव का मूल्यांकन करना होता है.

लीज़ का नवीनीकरण ख़त्म होने के साथ ही वन अधिकार अधिनियम लागू हो गया. FRA में यह बात अनिवार्य है कि नए कानून का पालन करते हुए, गैर वन उद्देश्य के लिए भूमि का उपयोग करने के लिए, राज्य वन विभाग से अतिरिक्त स्वीकृत लेनी होगी. इसके साथ ही इसे समुदायों से बनी ग्राम सभा से भी सहमति लेनी होगी. चूंकि, वन विभाग वन गुज्जरों को वन अधिकार अधिनियम के तहत जंगल का निवासी नहीं मानता, इसलिए वन विभाग और वन परामर्श समिति ने बिना ग्राम सभा की अनुमति के भूमि को लीज़ पर देने का रास्ता साफ़ कर दिया. उत्तर प्रदेश सरकार ने जून 2016 में जंगल के लीज़ के नवीनीकरण के लिए दूसरा आवेदन जमा किया. 15 जून 2017 को जब FAC ने इस पर विचार किया तो उसके मिनट्स यह बताते हैं कि इस अधिनियम के तहत सब डिविजनल लेवल की समिति ने ज़रूरी सर्टिफिकेट जारी किया. क्योंकि “चिन्हित ज़मीन पर अनुसूचित जनजाति/जंगल के निवासी का कोई भी अधिकार प्रभावित नहीं हो रहा है और उस क्षेत्र में पिछले कई सालों से अभ्यास किया जा रहा है.” वन अधिकार अधिनियम के तहत SDLC एक वैधानिक निकाय है जो ग्राम सभाओं की कार्यवाई को सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार है. FAC के मिनट्स में आगे दर्ज है कि शिवालिक रेंज के डिविजनल वन अधिकारी ने भी अपनी पिछली रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया था कि इस जंगल में आबादी रहती है. DFO ने FAC के अनुरोध के उत्तर में यह रिपोर्ट जमा की थी, जिसमें कहा गया है कि इस जंगल में आबादी रहती है इसके बावजूद ग्राम सभा से अनुमति या लोगों के पुनर्वास की कोई ज़रूरत नहीं है.

यह प्रस्ताव फ़ातिमा की मृत्यु के 3 हफ़्तों बाद, 10 अप्रैल 2018 को औपचारिक तौर पर स्वीकृत हो गया. इसके दो साल बाद जून 2020 में अपनी अंतिम स्वीकृति जारी कर दी गई. हालांकि, उत्तर प्रदेश वन भूमि के नवीनीकरण के लिए FAC की मीटिंग के मिनट्स से यह पता चलता है कि “सेना राष्ट्रीय सुरक्षा, युद्ध की तैयारी और लीज़ के नवीनीकरण की स्वीकृति की उम्मीद में” फायरिंग रेंज का लगातार इस्तेमाल कर रही थी. उत्तराखंड वन लीज़ के नवीनीकरण के लिए 28 अक्टूबर 2021 में हुई एक अन्य FAC बैठक में यह दर्ज है कि “01.10.2017 के बाद की समयावधि में वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के तहत केंद्र सरकार की अनुमति के बगैर AFFR का इस्तेमाल वन (संरक्षण) अधीनियम का उल्लंघन है और राज्य तथा IRO मंत्रालय की तरफ से कानून के अनुसार उचित कार्यवाई की जानी चाहिए.”

फायरिंग रेंज के गैर कानूनी इस्तेमाल की इसी समयावधि के दौरान सेना की कथित फायरिंग ने फ़ातिमा की हत्या कर दी थी. लेकिन, मार्च 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार ने गजट अधिसूचना प्रकाशित की. इसमें सेना को असन फील्ड फायरिंग रेंज के लिए जुलाई 2020 से जून 2050 तक तीस साल का लीज़ दे दिया गया.

नूर ने बताया कि फ़ातिमा की मृत्यु के कुछ महीनो बाद सेना ने उसकी मौत की बात स्वीकार की और उसके परिवार को क्षतिपूर्ति के तौर पर 50000 रुपये देने का प्रस्ताव दिया. युद्धाभ्यास, फील्ड फायरिंग और तोपखाना अभ्यास अधिनियम में यदि “ऐसे युद्धाभ्यास से किसी व्यक्ति या संपत्ति को या किसी के विशेषाधिकार में कोई हस्तक्षेप होता है,” तो मुआवजे के भुगतान का प्रावधान है. यह स्पष्ट नहीं है कि क्यों सेना ने हनीफ़ और मुस्तफ़ा की मौत को न तो स्वीकृति दी न ही उन्हें कोई मुआवज़े की पेशकश की. कोर कमिटी सदस्य के अनुसार इसकी व्याख्या सरल है : “इसे आसानी से सिद्ध किया जा सकता था कि यह गैर कानूनी है, इसीलिए.” वह सदस्य और नूर के पड़ोसी नबी दोनों ने यह भी कहा कि फ़ातिमा का डेरा फायरिंग रेंज की सीमाओं के बाहर स्थित था. “मोर्टार फायरिंग रेंज की सुरक्षा सीमा से कम से कम तीन किलोमीटर बाहर जाकर गिरा था ”, कोर कमिटी के सदस्य ने कहा.

दिसम्बर 2022 में, संसद सदस्य बिनोय विस्वाम ने राज्य भर में सरकार द्वारा अधिसूचित फील्ड फायरिंग रेंज का ब्यौरा माँगा और साथ ही राज्य वार जनसांख्यिकी व फायरिंग रेंज के कारण विस्थापित हुए लोगों की संख्या की मांग की. रक्षा मंत्रालय ने उत्तर दिया “अधिसूचित फायरिंग रेंज में कोई भी आबादी नहीं है.” लेकिन, जंगल में कोई भी जाकर देख सकता है कि यह न सिर्फ स्पष्ट रूप से झूठ है बल्कि यह आधिकारिक रिकॉर्ड के भी विरोध में है. उदाहरण के लिए, 15 नवम्बर 1927 का एक पत्र नूर के दादा को इस जंगल में उनके मवेशियों को चराने की इजाज़त देता है. इस दस्तावेज के अनुसार, वन गुज्जर दशकों से इस जंगल में निवासी के रूप में दर्ज हैं. यहां तक कि वन अधिकार अधिनियम की शर्तों के अनुसार भी वे यहां के निवासी हैं. नूर के पड़ोसी नबी कहते हैं “हम इस जंगल में सेना के आने से बहुत पहले से पीढ़ियों से रह रहे हैं.

नूर मुहम्मद के दादा बाबी गुज्जर को शिवालिक के जंगलों में पशु चराने की अनुमति के लिए 15 नवम्बर 1927 को जारी फ़ॉरेस्ट परमिट तस्वीर: शरजील उस्मानी

नूर के पड़ोसी नबी जो एक वन गुज्जर लम्बरदार (किसी ख़ास क्षेत्र में वन गुज्जर को दी जाने वाली पदवी) भी हैं. उनके अनुसार सहारनपुर जिला सीमा क्षेत्र के अन्दर शिवालिक जंगल क्षेत्र में 1800 से ज्यादा वन गुज्जर परिवार रहते हैं. नबी ने आगे बताया कि ये परिवार सालों से अपने वन अधिकारों का दावा पेश कर रहे हैं. गूच लिखती हैं कि औपनिवेशिक नौकरशाही इन जंगलों में वन गुज्जरों और उनके वार्षिक प्रवास के रास्तों के रिकॉर्ड को संभाल कर रखती थी. इन रिकॉर्डों से पता चलता है कि कम से कम 1880 से वन गुज्जर शिवालिक के जंगलों के पहाड़ी क्षेत्रों में आते-जाते रहे हैं.

लीज़ समझौते में, FAC ने यह सावधानियां बताई है जो सेना को जंगल का इस्तेमाल करते वक्त बरतनी है. उसमे से एक शर्त है कि अपना अभ्यास शुरू करने से पहले उन्हें स्थानीय डिविज़नल फ़ॉरेस्ट ऑफिस को सूचित करना है. और वास्तविक अभ्यास शुरू होने के एक घंटे पहले हवा में एक फायरिंग की जाए. फ़ातिमा की मौत के वक्त वन विभाग के एक कर्मचारी नूर दीन भी घायल हो गए थे. अनेकों गवाह इस बात की पुष्टि करते हैं कि विस्फ़ोट के कारण एक छोटा छर्रा उनकी जांघ में लगा था. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार दीन उस वक्त उस इलाके में ही थे और वन गुज्जर समुदाय में पोलियो का टीका लगवाने का काम कर रहे थे. जब मैंने उनसे उस घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने बातचीत से इनकार कर दिया और वहां से चले गए.

पोलिस प्रोजेक्ट ने शिवालिक रेंज की DFO सैन को यह पूछते हुए सवाल भेजे कि क्या सेना ने उन्हें फायरिंग शुरू करने से पहले सूचना भेजी थी, अगर भेजी थी तो, क्या वह दीन और वन गुज्जरों को इसके बारे में सचेत करने में असफ़ल रहीं? इस लेख के प्रकाशन के समय तक DFO ने कोई जवाब नहीं दिया.

मनोज कुमार राय, रक्षा मंत्रालय के अधिकारी हैं जो फील्ड फायरिंग रेंज से होने वाले नुकसान और चोटों के कारण मिलने वाले मुआवजों के मुद्दे को देखते हैं. उन्होंने असन फील्ड फायरिंग रेंज अथवा नूर को दिए जाने वाले पैसे के बारे में पूछे गए सवालों का जवाब नहीं दिया. रक्षा मंत्रालय के जनसंपर्क निदेशालय ने ईमेल से भेजे गए सवालों का जवाब भी नहीं दिया. न ही भारतीय सेना ने कोई जवाब दिया. प्रतिक्रिया मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट किया जायेगा.

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अगर जंगल में अंधाधुंध फायरिंग से कोई वन गुज्जर मरता है, तो जंगल की सीमा के नज़दीक के पड़ोसी गांव वाले इस पशुपालक समुदाय की गुहार पर कोई मदद नहीं करते. बादशाही बाग़ क्षेत्र में रहने वाले वन गुज्जर समुदाय के एक नेता के अनुसार इसका कारण आर्थिक है. ताम्बे और पीतल जैसी बहुमूल्य धातु से बने मोर्टार शेल के कबाड़ को इकठ्ठा करने और बेचने में काफी आमदनी होती है. सहारनपुर के डिविज़नल फ़ॉरेस्ट अफ़सर मोर्टार के टुकड़ों (जिनका विस्फोट नहीं हुआ है वे भी) को इकठ्ठा करने के लिए ऑनलाइन टेंडर के जरिये बाहरी ठेकेदारों को रोजगार देते हैं. शिवालिक रेंज के DFO द्वारा जारी विज्ञापन के अनुसार बड़कला रेंज और शाकुम्भरी रेंज में आवेदक क्रमशः दो लाख और पचास हज़ार में कबाड़ इकठ्ठा करने के लिए आवेदन कर सकता है.

आल इण्डिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वोर्किंग पीपुल (AIUFWP) के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने भी बताया कि वन गुज्जरों की दुर्दशा को नज़रंदाज़ करने के पीछे टेंडर और वित्तीय लाभ एक बड़ा कारण होता है. चौधरी ने कहा “यहां पर सेना को रखने में वन विभाग का भी निहित स्वार्थ होता है. वन विभाग सेना द्वारा इस्तेमाल किये गए बमों और हथियारों के धातु कबाड़ के लिए टेंडर निकलता है और इसमें उसे कमीशन भी मिलता है. यह बहुत लाभदायक धंधा है.” उन्होंने आगे कहा कि “इस क्षेत्र में सेना की उपस्थिति से आस पास रहने वाले सभी लोग लाभान्वित होते हैं. स्थानीय लोगों को पेट्रोल और दूसरी चीज़ें सस्ते दर पर मिल जाती हैं. सिर्फ़ हमारे वन गुज्जर भाई ही इन सबके बीच फंसे हुए हैं.”

पहचान न बताये जाने की शर्त पर समुदाय के एक नेता ने कहा “चूंकि हम लगातार पत्र लिख रहे हैं इसलिए कल को अगर फायरिंग रुक जाती है तो इससे उनका धंधा प्रभावित होगा. वे चाहते हैं कि सेना यहीं रहे भले ही इससे हमारे जीवन को खतरा है.” जब मैंने गांव वालों से इस बारे में बात करनी चाही तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया और मेरे प्रति आक्रामक होने लगे.

फ़ातिमा के ससुर नूर वन गुज्जरों के प्रति गांव वालों की उदासीनता के पीछे इस वित्तीय पहलू को और बेहतर तरीके से समझाते हैं. वे कहते हैं कि गांव के बहुत से लोग जंगल में गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल रहते हैं जैसे पेड़ों को काटना और यहांतक कि जानवरों का शिकार भी. नूर आगे कहते हैं कि “वन गुज्जर जंगल को अपना घर मानते हैं, और हम अपनी आँखों के सामने ऐसी गैर कानूनी गतिविधियों को कतई अनुमति नहीं देते.” पिछले साल की एक घटना को याद करते हुए नूर कहते हैं “मेरे भतीजे को पता चला कि कुछ गांव वाले जंगल में पेड़ों की तस्करी कर रहे हैं. वह सीधा फ़ॉरेस्ट रेंजर के ऑफिस गया और उन्हें इस अपराध की जानकारी दी. लेकिन मेरे भतीजे को ही रेंजर के ऑफिस में बंद कर दिया गया और फ़ॉरेस्ट रेंजरों ने उसे पीटा.” उस घटना के बाद नूर ने निष्कर्ष निकला कि गांव वालो की इस गैर कानूनी गतिविधि की जानकारी वन विभाग के अधिकारियों को होती है अथवा वे इसमें शामिल भी होते हैं. दूसरे वन गुज्जर जो हमारी बातचीत को सुन रहे थे. उन्होंने सहमति में सिर हिलाया.

सहारनपुर के सांसद मसूद इन परिस्थितियों के बारे में असहाय महसूस करते हैं. वह कहते हैं “2007-2012 के बीच जब मैं विधायक था तो मैंने सारे ज़रूरी प्राधिकरणों से बात की थी. लेकिन चूंकि इसे एक नीतिगत निर्णय होना था, मैं अपने तई इसके बारे में कुछ न कर सका.” हालांकि मसूद फायरिंग रेंज की अवैधता के बारे में ज़ोरदार तरीके से कहते हैं “सेना को यहां नहीं होना चाहिए. पूरा क्षेत्र सघन जनसंख्या वाला है और यह नागरिक  क्षेत्राधिकार में रहने वाली जनसंख्या के काफी करीब है. वन गुज्जरों के अलावा यह क्षेत्र एक समृद्ध पारिस्थितिकीय तंत्र वाला है, जिसे सेना नष्ट कर देगी और यह FRA का गंभीर उल्लंघन है.”

उन्होंने आगे कहा “इन सबका एकमात्र कारण यह है कि वन गुज्जर मुसलमान है. और यह सरकार मुसलमानों से घृणा करती है. अगर ये किसी अन्य समुदाय के साथ होता तो इस मुद्दे को ज्यादा गंभीरता से संबोधित किया जाता. जब मैं विधायक था तो मैंने कई बार इस मसले पर आयुक्त से मुलाकात की. लेकिन उन्होंने सिर्फ़ वादा किया और किया कुछ नहीं.”

हाल के वर्षों में हिंदूवादी समूहों से जुड़े गांव वाले भी वन गुज्जरों को उनकी मुस्लिम पहचान के कारण निशाना बना रहे हैं. वन गुज्जर आमतौर पर अपनी वेश भूषा के कारण आसानी से पहचान में आ जाते हैं. समुदाय के ज़्यादातर  उम्रदराज़ लोग कुर्ता पहनते हैं, लुंगी जैसी एक कमरबंद बांधते हैं और पगड़ी पहनते हैं. ख़ास तौर से वन गुज्जर भोर में अपनी भैंसों का दूध दुहते हैं और उसे डिब्बे में लेकर जंगल की सीमा तक जाते हैं, जहां विक्रेता उनसे दूध खरीद कर शहरों में बेचते हैं. महामारी के समय कोर कमिटी के एक सदस्य के अनुसार स्थानीय समूहों ने उनके दूध का बहिष्कार का आह्वान किया और उन पर यह दोष मढ़ा कि वे दूध में थूकते हैं और कोरोना फैलाते हैं. पिछले दिनों एक हिन्दू अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन रूद्र सेना ने वन गुज्जरों पर “लैंड जिहाद” का दोष मढ़ते हुए धमकी दी कि अगर वे जंगलों में रहेंगे तो उनके ख़िलाफ़ हिंसा की जायेगी.

एक विक्रेता ने अपनी पहचान ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहा कि वन गुज्जर गन्दी राजनीति के शिकार हैं. उसने कहा “जब भी गुज्जरों को दूसरी जगह बसाने की चर्चा होती है, तो यह मुद्दा उठ खड़ा होता है. उन्हें दूसरी जगह बसाने से रोकने के लिए जानबूझ कर ऐसा किया जाता है. अगर वन गुज्जरों को दूसरी जगह बसाया जायेगा तो उन्हें गांव की सीमा के अंदर की वन भूमि मिलेगी, लेकिन इनमें से ज़्यादातर भूमि राजनैतिक रूप से दबंग ग्रामीणों के अधीन है.” वास्तव में, सहारनपुर के डीएम, DFO और दूसरे प्राधिकरण के बीच हुई चर्चा के रिकॉर्ड यह बताते हैं कि वन गुज्जरों के संभावित पुनर्वास के लिए जिन ज़मीनों की चर्चा की गई थी वे सभी नज़दीकी गांव के अंदर थी.

गुज्जरों को दूसरी जगह बसाने का सवाल आधिकारिक चर्चा में कई बार उठा है. 1979 में ही उत्तरप्रदेश सरकार ने एक भूतपूर्व फ़ॉरेस्ट ऑफिसर चमन लाल भसीन का एक अध्ययन प्रकाशित किया था जिसमें जंगल से वन गुज्जरों के पुनर्वास पर चर्चा की गई थी. भसीन का प्रस्ताव था कि जंगल की सीमा पर प्रत्येक वन गुज्जर परिवार को उनके पशुपालन के लिए एक हेक्टेयर ज़मीन और घर बनाने के लिए 500 वर्गमीटर ज़मीन दे जानी चाहिए. लेकिन प्रस्ताव कभी भी लागू नहीं हुआ.

2007 में, वन गुज्जरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने सहारनपुर जिला मजिस्ट्रेट को अनुरोध करते हुए लिखा कि सेना को जंगल के दूसरे हिस्से में सीमित किया जाये. पत्र में आगे कहा गया था कि “पिछले 100 सालों से जंगल के चपड़ीखोल क्षेत्र में 20 परिवार रह रहे हैं.” प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने बताया कि मजिस्ट्रेट ऑफिस की तरफ से प्रतिनिधिमंडल के पास कोई जवाब नहीं आया.

यह मुद्दा हाल के वर्षो में भी बना रहा. सहारनपुर जिला मजिस्ट्रेट ने अपने अधीनस्थों और वन अधिकारियों के साथ 9 अक्टूबर 2018 को एक बैठक की जिसमें असन फील्ड फायरिंग रेंज के प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले वन गुज्जरों को जंगल के बाहरी हिस्सों में बसाने के लिए सरकारी भूमि को चिन्हित किया जाना था. सहारन पुर जिला मजिस्ट्रेट द्वारा DFO को लिखे गए 4 अक्टूबर 2018 के एक पत्र से यह पता चलता है कि वन गुज्जरों को दूसरी जगह बसाने के लिए जंगल की ज़मीन को चिन्हित भी कर लिया गया है जो गांव की सीमा के अंदर पड़ती है. लम्बरदार नबी कहते हैं कि वन गुज्जरों को इस प्रस्ताव के बारे में अधिकारियों से कोई जवाब नहीं दिया गया. जिला मजिस्ट्रेट और वन अधिकारी ने इस बारे में किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया.

2019 में उत्तर प्रदेश के बेहात (जंगल के सबसे नज़दीक का विधानसभा क्षेत्र) सीट से विधायक नरेश सैनी ने बार-बार के आश्वासनों के बावजूद सहारनपुर प्रशासन द्वारा वन गुज्जरों के पुनर्वास में असफलता के बारे में राज्य सचिव को संबोधित करते हुए पत्र लिखा.

पत्र में, सैनी ने जंगल  के अन्दर वन गुज्जरों के मारे जाने पर क्षोभ व्यक्त किया. और इस बात का उल्लेख किया कि 1990 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसी तरह का पुनर्वास किया गया था जिसमें 878 वन गुज्जरों को पुनः बसाया गया था. पत्र में लिखा गया – “मैं आपके संज्ञान में यह लाना चाहता हूं कि मेरा चुनाव क्षेत्र उत्तराखंड की सीमा से लगता है जहां उस इलाके के वन गुज्जरों को हरिद्वार शहर में बसाया गया है.” 19 जुलाई 2019 को राज्य सचिव ने पत्र के हाशिये पर “तत्काल टिप्पणी भेजें” लिखकर, उक्त पत्र को सहारनपुर जिला मजिस्ट्रेट को अग्रसारित कर दिया.

सैनी ने कांग्रेस छोड़ कर शासन करने वाली भाजपा में शामिल होने के कुछ महीने पहले, इस मुद्दे को पुनः 2022 में विधान सभा में उठाया. उसके बाद से उन्होंने वन गुज्जरों के बारे में कुछ  नहीं बोला. सैनी ने उनकी टिप्पणी के लिए किये जाने वाले अनेकों फ़ोन कॉल और मेसेजों का जवाब नहीं दिया.

नूर मोहम्मद और उनके परिवार वालों को शिवालिक जंगल में स्थित चापड़ी खोल में स्थित अपने डेरा से नज़दीकी सड़क तक पहुचने में कई पहाड़ियां और झरने पार करने पड़ते हैं. फोटो: मीर फैसल

लेकिन जैसा कि सैनी ने लिखा था, वन गुज्जरों ने सेना की फायरिंग को देखते हुए उन्हें बार-बार अलग से बसाने की गुजारिश की. और जिला प्रशासन ने बार-बार उन्हें इसका आश्वासन भी दिया. दुबारा से बसाने के ऐसे उदाहरण भी हैं. 2017 में भारतीय सेना ने असम के दारंगा फील्ड फायरिंग रेंज में प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले 34 परिवारों को दुबारा से बसाया. हालांकि, भारतीय सेना ने वन गुज्जरों की सहमति के बिना असन फील्ड फायरिंग रेंज का लीज़ हासिल कर लिया था, नूर ज़ोर देकर कहते हैं कि अगर उनके पुनर्वास के प्रावधानों को लागू  किया जाता तो वन गुज्जर उसे सहमति देने में कभी नहीं हिचकिचाते.

नूर ने आगे कहा “इस तरह के व्यवहार सेना के लिए ज़रूरी है, नहीं तो वे कैसे जीतेंगे?  हम यह नहीं कह रहे हैं कि जंगल में सिर्फ़ हम रहेंगे और सेना को जाना होगा. हम अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ़ शांति चाहते हैं. हम यह चाहते हैं कि हमें उस सुरक्षित जगह पर बसाया जाए जहां हमारे बेटे-बेटियां आसमान से गिरते बम से मरे नहीं. हम अपने आपको और अपने जंगल को सुरक्षित देखना चाहते हैं.”

 

Hindi translation by Manish Azad. Read the original in English here.

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