शराफ़त अली कसाना के पिता नूर दीन की 2002 में मृत्यु हो गई. उस समय दीन घर के मुखिया थे. गर्मियों में वह अपने परिवार व अन्य वन गुज्जरों को उत्तराखंड के राजाजी जंगल से अपने वार्षिक प्रवास के लिए ऊंचे पहाड़ के जंगलों में ले गए. उनकी मृत्यु इसी प्रवास के दौरान हुई. कसाना को आज भी इस बात का दुःख है कि उनके पिता को मृत्यु के एक दिन बाद तक भी नहीं दफ़नाया जा सका था क्योंकि उन्हें कोई उपयुक्त क़ब्रिस्तान व कफ़न नहीं मिल सका और उस समय उनका नमाज़े जनाज़ा कराने वाला कोई इमाम भी नहीं मिला. कसाना याद करते हुए कहते हैं कि “उस समय हमने अंतिम बार ऊंचे पहाड़ों की ओर प्रवास किया था.” बाद के दशकों में वन गुज्जरों की मुक्त आवाजाही पर प्रतिबन्ध बढ़ता गया और गुज्जर समुदाय को अपने मवेशियों के लाभ के लिए प्रवासी पैटर्न को अनुकूलित करने को बाध्य होना पड़ा. लेकिन इस परिवर्तन की उन्हें एक भारी कीमत चुकानी पड़ी – सतत कर्ज का दुष्चक्र.
वन गुज्जर, गुज्जरों (इसे गुर्जर भी कहा जाता है) का एक मुस्लिम, अर्धघुमंतू पशुपालक समुदाय है. यह हिमांचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और जम्मू कश्मीर के जंगलों में फैला हुआ है. उनका मुख्य पेशा सामान्य तौर पर गोजरी कहे जाने वाली पहाड़ी भैंसों का पालन-पोषण है. पशुपालक खानाबदोश समुदाय वन गुज्जर, गर्मियों में हिमालय की उंचाई स्थित जंगलों में प्रवास करते हैं और सर्दियों में शिवालिक के जंगलों के पहाड़ी क्षेत्रों में (जो अब राजाजी नेशनल पार्क के अंतर्गत आता है) में लौट आते हैं. जैसा कि मैंने पहले लिखा है वन गुज्जर प्रवास का मुख्य उद्देश्य अपने पशुओं के लिए घास का मैदान ढूंढना है और वहीं इससे निचले हिमालय के जंगलों में चराई और छंटाई (वन गुज्जरों द्वारा पेड़ों की छटाई का यह काम एक परंपरागत और स्थाई तरीका है जिसे “आवर्ती चराई” भी कहते हैं) के बाद उन्हें फिर से पनपने और विकसित होने का मौका मिलता है.
अपनी आजीविका के लिए वन गुज्जर आने-जाने के अपने रास्तों में, कस्बों और गांवों में दूध बेचते हैं और बदले में अपने लिए आवश्यक सामान खरीदते हैं. परंपरागत रूप से वे वस्तु विनिमय करते थे जो बाद में रुपये के लेन देन में विकसित हो गया. लेकिन फिर भी उनकी अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था ही है. कई पीढ़ियों से वन गुज्जर इस व्यवसाय में शामिल हैं. कसाना के दादा अपने जानवरों को मुक्त तरीके से चराते थे और जंगल के दूसरे संसाधनों का इस्तेमाल अपने लिए और अपने मवेशियों के लिए करते थे. एक स्थानीय वन गुज्जर समुदाय के नेता शमशाद कहते हैं – “ यह सब उस समय बदलने लगा जब जंगल में हमारा आवागमन बाधित किया जाने लगा. अब वन गुज्जर अपने मवेशियोंको खिलाने के लिए वन संसाधनों पर निर्भर नहीं रह सकते और अब हमें मवेशियों को खिलाने के लिए चीज़ें बाजार से खरीदनी पड़ती है.” परिणामस्वरूप, हाल के दशकों में वन गुज्जरों की परंपरागत जीवन शैली खतरे में पड़ गई है.
जंगलों के राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिज़र्व घोषित होने से और यहां पर पर्यटन प्रोजेक्ट के फैलने से वन गुज्जरों को अपनी चारागाह भूमि का बहुत बड़ा हिस्सा खोना पड़ा है. चराने के लिए परमिट होने के बावजूद उन्हें लगातार वन अधिकारियों की हिकारत का सामना करना पड़ता है. मवेशियों के चराने का बहुत कम स्थान रह जाने के कारण अब उन्हें बाज़ार से महंगी पूरक चीज़ें और मवेशियों के चारे के लिए थोक खरीद पर निर्भर रहना पड़ता है. जिससे वे स्थानीय दुग्ध व्यापारियों से कर्ज लेने के लिए बाध्य हो जाते हैं. ये व्यापारी वन गुज्जरों को उनके दूध के लिए उनको कम दाम देकर शोषण करते हैं. इस तरह एक स्वनिर्भर परस्पर लाभ की अर्थव्यवस्था एक कर्ज और निर्भरता में बदल गई. इस प्रक्रिया में, वन गुज्जरों ने अपने उत्पाद पर अपनी स्वायत्तता खो दी और अब वे अपनी परंपरागत जीवनशैली को बचाए रखने का संघर्ष करते हुए वर्तमान विकास की चुनौतियों और आर्थिक दबाव के साथ अपना ताल मेल बिठा रहे हैं.
दीन की मृत्यु के कई साल पहले, कसाना और अन्य लोग बढ़ती शत्रुता और प्रतिबंधों के कारण ऊंचे पहाड़ के जंगलों में अपने प्रवास को बंद करने पर विचार कर रहे थे. लेकिन यह समुदाय अभी भी राजाजी और शिवालिक के जंगलों से उत्तरप्रदेश के बिजनौर जिले में गंगा नदी के बाढ़ वाले मैदानी हिस्से “खादर का टापू” में हर साल 3 महीने के लिए प्रवास करते हैं. गोजरी भैंस हिमालय के निचले हिस्सों की भीषण गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती, जहां पिछले कई सालों से तापमान में भीषण बढ़ोत्तरी हो रही है और इससे जंगल में आग लग रही है. कसाना कहते हैं – “ हमारी भैंसे कड़ी गर्मी में ज़िन्दा बच भी जाएं फिर भी हमारे लिए गर्मियों में जंगल में रहना आर्थिक रूप से असंभव है.”
वन गुज्जर अर्थव्यवस्था का रूपांतरण
वन गुज्जर ट्राइबल युवा संगठन (वन गुज्जरों का एक युवा संगठन जो समुदाय के लिए वन अधिकार हासिल करने की दिशा में काम करता है) के संस्थापक मीर हमजा का मानना है कि उनके अधिकारों का क्षरण पांच दशक पहले शुरू हुआ था. हमजा कहते हैं कि – “अभ्यारण, पार्क, रिज़र्व के रूप में वनों के वर्गीकरण की पूरी प्रक्रिया 1974 में शुरू हुई. कई संरक्षण समितियां बनी और उस जंगल में जहां हम पीढ़ियों से आज़ाद रहते थे, वहां वन विभाग ने हमारी गतिविधियों पर सतर्कता पूर्वक अंकुश लगाना शुरू कर दिया. समय के साथ धीरे-धीरे हमारे चारागाह कम होते गए और हमारा जंगल के प्रति स्वामित्व बोध धीरे-धीरे कम होने लगा क्योंकि अब हम अपने अस्तित्व के लिए जंगलों पर निर्भर नहीं रह सकते थे.”
कसाना की तरह, हमजा भी उन दर्जनों वन गुज्जर परिवारों में से एक परिवार से आते हैं जो अभी भी हरिद्वार व ऋषिकेश जिले में फैली हिमालय की निचली तराई वाले राजाजी जंगल में रह रहे हैं. 1992 में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिलने के बाद उत्तराखंड वन विभाग ने राजाजी वन के मोतीचूर और रानीपुर क्षेत्रों से, 1,300 परिवारों को बिजनौर जिले की सीमा के पास, हरिद्वार के पत्री और गेंदीखाता गांवों में स्थानांतरित कर दिया गया. मोंगाबे की एक रिपोर्ट के अनुसार 1,300 – 1600 लोगों को बिना ज़मीन दिए जंगलों से स्थानांतरित कर दिया गया. इससे उन्हें हरिद्वार और ऋषिकेश की घाटियों में नदी के किनारों के पास अस्थाई आश्रय बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा. कसाना के डेरे पर मेरी मुलाकात 44 वर्षीय एक वन गुज्जर गुलाम रसूल से हुई, उन्होंने मुझे बताया कि उसके भाई को गेंदीखाता में ज़मीन आवंटित की गई लेकिन उन्हें नहीं दी गई. जिससे उन्हें अस्थाई तौर पर अक्सर साथ के गुज्जरों की दया पर विभिन्न जगहों पर आश्रय लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.
उन सभी गुज्जरों से जिनसे मैंने बात की, उन्होंने कहा कि जंगल के भीतर उनके सामान्य रास्तों का इस्तेमाल करने से उन्हें अचानक रोके जाने तक, वे गर्मियों में अपने वार्षिक प्रवास के लिए उत्तरकाशी और टिहरी गढ़वाल के ऊंचे पहाड़ों वाले जंगलों में जाते रहे हैं. रसूल, दो दशक पहले अंतिम बार सन 2000 की शुरुआत में ऊंचे पहाड़ों वाले बुग्याल (घास का मैदान) में गए थे. रसूल आगे कहते हैं, “ यात्रा हमेशा की तरह पर्याप्त कठिन थी लेकिन प्रतिबंधों और दूसरे मुद्दों ने इसे और ज्यादा कठिन बना दिया था. हमारे मवेशियों के लिए भी यह लाभदाई नहीं था.”
वन गुज्जरों के प्रवास का पुराना रास्ता (जिस पर दीन अपने मृत्यु तक आते-जाते रहे) आमतौर पर एक महीने में पूरा होता था. इस यात्रा में खुले मैदान व जंगल होते हैं जिसे ख़ानाबदोश पशुपालक पूर्व निर्धारित रास्ते व समय सारणी के अनुसार पार करते , और रास्ते में कई गांव में उनकी सार्वजनिक ज़मीन पर अपना डेरा डालते थे. पहाड़ों की ऊँचाई पर वाणिज्यिक बाज़ार न होने के कारण गांव वाले दुग्ध उत्पाद जैसे मक्खन व घी के लिए वन गुज्जरों पर निर्भर रहते थे.
हमजा कहते हैं – “वो अलग दिन थे, गांव वाले हमारा इंतज़ार करते थे, न सिर्फ़ हमारे दुग्ध उत्पादों के लिए बल्कि अपनी घास हमें बेचने के लिए भी. वे प्रजनन के उद्देश्य से हमसे झोटा (नर भैंस) लेते थे और घी के बदले हमें गोमांस गाय देते थे. इसके अलावा, जब हम वहां से चलते थे तो हमारे पशु अच्छी खासी मात्रा में अपना गोबर वहां छोड़ते थे जिसे वे खाद के रूप में इस्तेमाल करते थे.” मीर इस सम्बन्ध को गांव वालों के साथ परस्पर निर्भरता का सम्बन्ध बताते हैं. वे कहते हैं – “पहले हम दोनों ही समान थे, हम दोनो गरीब थे.”
2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के साथ ही यह सब बदल गया और नए बने राज्य में विकास के ढेर सारे प्रोजेक्ट आने लगे. 2011 में एक शोध अध्ययन हुआ. जिसका शीर्षक है “एडाप्टेशन एंड कोएक्सिस्टेन्स ऑफ़ वन गुज्जर्स इन द फ़ॉरेस्ट : अ सक्सेस स्टोरी”. इस लेख में कहा गया है कि वन प्रतिबंधों और मार्ग बदलने के बावजूद “वन गुज्जर लचीले साबित हुए हैं और गतिहीन उद्देश्यों के लिए संसाधनों की आपसी साझेदारी की उनकी सामाजिक संरचना और तंत्र अक्क्षुण्ण बने हुए है.” शोधकर्ता रुबीना नुसरत, बी.के. पटनायक और नेहल ए फ़ारूकी कहते हैं कि यह हिमालयी राज्य पर्यटन, होटल, मार्ग निर्माण, हाइड्रो पॉवरप्लांट व अन्य उद्देश्यों के लिए हाल के दशकों में अत्यधिक संरचनागत विकास से गुजरा है. इस अध्ययन के अनुसार, सिर्फ़ रक्षा उद्देश्य से कुल 16653 किमी धातु वाली सड़कें और 2593 किमी गैर धातु वाली सड़कें इस क्षेत्र में बनाई गई. शोधार्थी लिखते हैं – “इसके परिणामस्वरूप वन गुज्जरों को अपना प्रवास मार्ग बदलना पड़ा और सड़कों पर उनके पशुओं के मारे जाने की समस्या का सामना करना पड़ा. इसके अलावा चोरी और लगातार चलते रहने का दबाव भी झेलना पड़ा. ऐसी भी घटनाएं हुई हैं जब उनके जानवर रोड के किनारे की बेकार ज़मीनों पर पैदा हुई ज़हरीली वनस्पतियों को खाकर मर गए.”
विकास के इन प्रोजेक्ट ने उन गांव वालों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में सुधार किया, जिनसे वन गुज्जर व्यापार करते थे. राज्य में ऊंचे पहाड़ों के इलाकों में बेहतर संपर्क मार्ग के कारण पर्यटन उद्योग में उछाल आया. जिससे गांव वालों के लिए और ज़्यादा आर्थिक अवसर उत्पन्न हुए. हमजा कहते हैं – “गांव वालों ने अपना पुराना व्यवसाय छोड़ दिया और साहब बन गए. उन्हें गाय के गोबर को देख कर भी घिन आने लगी.” वन गुज्जर युवा समूह के वर्तमान अध्यक्ष अमन चेची, संगठन के संस्थापक की बात को दोहराते हुए कहते हैं – “विकास अभियान के बाद जहां हम पहले अपना पारंपरिक प्रवास करते थे, अब उन जगहों पर पक्की सड़कें बन गई हैं. जिन जगहों पर हम आराम करते थे वहां होटल बन गए हैं या उनका कूड़ाघर बन गए हैं. अब वहां हमारी उपस्थिति गांव वालों को अच्छी नहीं लगती.”
इसके अतिरिक्त, जंगल के अन्दर नेशनल पार्क और अभ्यारण्य बनने की अधिसूचना लागू होने के कारण, वन गुज्जरों की आवाजाही पर बढ़ते प्रतिबंधों ने उनके प्रवास के दौरान उनके संघर्षों को और ज्यादा बढ़ा दिया. आने वाले वर्षों में वन गुज्जरों ने ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में अपने वार्षिक प्रवास जारी रखने के लिए सड़क के किनारे-किनारे नया रास्ता तलाशा.
पहाड़ी इलाके को खतरनाक बनाने वाले भारी यातायात से बचने के लिए वे आमतौर से रात में चलने लगे और दिन में आराम करने लगे. हालांकि, इस परिवर्तन की अपनी चुनौतियां थीं. पहले वे अपने रास्तों पर गांव वालों द्वारा प्रदान किये गए चारे वाली घास पर निर्भर रहते थे. लेकिन अब उन्हें अपने मवेशियों को जीवित रखने के लिए बाज़ार से महंगा पूरक चारा खरीदना पड़ता है.
परंपरागत वस्तु विनिमय की व्यवस्था, जहां वे अपने दुग्ध उत्पाद के बदले, ज़रूरी चीज़ें खरीदते थे, प्रायः ख़त्म हो गई और उन्हें अपने दुग्ध उत्पाद के लिए नए बाज़ार तलाशने के लिए संघर्ष करना पड़ा. यह यात्रा गर्मियों की भीषण गर्मी के दौरान और कठिन हो गई. क्योंकि उन्हें पानी के स्रोत की तलाश के लिए दर-दर भटकना पड़ा और अपने कारवाँ और मवेशियों के लिए आराम करने की उचित जगह तलाशने को मजबूर होना पड़ा. इन अनुकूलनों के कारण उनके पहले से मुश्किल प्रवास में अन्य जटिलताएं भी जुड़ गईं. इसका मतलब यह था कि सीमित संसाधनों के कारण उन्हें रास्तों में अपने रुकने की जगहें कम करनी पड़ी और उन्हें अपनी यात्रा न्यूनतम आपूर्ति और अधिकतम कठिनाई में पूरी करने के लिए बाध्य होना पड़ा.
परिणामतः, शिवालिक क्षेत्र के ज़्यादातर वन गुज्जरों ने हिमालय के ऊंचे पहाड़ों के जंगलों में प्रवास करना छोड़ दिया और हर साल तीन महीने के लिए बिजनौर तक, पास में ही छोटा प्रवास करने लगे. हालांकि, हिमालय के निचले हिस्से में जब गुज्जर प्रवास से लौटते थे तो चराने का परमिट होने के बावजूद घास के मैदान तक उनकी पहुच मुश्किल हो जाती थी और उन्हें लगातार फ़ॉरेस्ट रेंजरों द्वारा परेशान किया जाता था. बिना घास के मैदान तक जंगलों तक उन्हें सीमित कर दिए जाने से गुज्जर अपने मवेशियों के खाने के लिए बाज़ार से चीज़ें खरीदने को बाध्य हुए.
कर्ज, निर्भरता और शोषण की अर्थव्यवस्था
आज की तारीख में, लगभग सभी वन गुज्जर अपने मवेशियों के चारे के लिए लगभग पूरी तरह से बाज़ार के उत्पाद पर निर्भर हैं. कसाना ने बताया – “अब हमारे लिए कोई भी घास का मैदान उपलब्ध नहीं है. हम अब पेड़ों की छंटाई नहीं कर सकते. अगर हम बाज़ार से नहीं खरीदेंगे तो हम अपने मवेशियों के लिए चारा कहां से लायेंगे. बिजनौर में 3 माह के प्रवास का ही वह समय होता है जब हमें पशुओं के लिए चारा नहीं खरीदना पड़ता है.”
वन गुज्जर आम तौर से अपनी भैंसों के लिए चार तरह का चारा खरीदते हैं – खली, चोकर, पुराल, भूंसा. कसाना के डेरा में छोटी झोपड़ियों का एक समूह है जो मिट्टी और पेड़ की टहनियों से बना है. प्रत्येक परिवार के पास एक अतिरिक्त झोपड़ी होती है जिसमें वह इन चीज़ों को रखते हैं. शराफ़त को प्रतिवर्ष अपने 30 मवेशियों (इनमें से 8 दूध देती हैं) के चारे के लिए 8 लाख 50 हज़ार रुपये का खली और चोकर तथा 3 लाख रुपये का पुराल और भूंसा की ज़रूरत होती है. “हमारे पास इतना पैसा नहीं होता कि हम अपनी ज़रूरत का सामान थोक में खरीद सकें. इसके लिए हमें लालाओं की मदद की ज़रूरत होती है.”
वन गुज्जर उन दुग्ध व्यापारियों को लाला कहते हैं जो उनसे दूध खरीदते हैं. पहले वन गुज्जर अपने रास्ते में विभिन्न गांववालों को दूध बेच सकते थे लेकिन अब लालाओं ने बाज़ार पर अपना एकाधिकार कायम कर लिया है और वे सभी खरीददारियों को नियंत्रित करते हैं. वस्तुतः, नज़दीक के शहर ऋषिकेश और हरिद्वार के दुग्ध व्यापारियों का इन पशुपालकों के साथ एक ख़ास रिश्ता होता है – वे न सिर्फ़ उनसे दूध खरीदते हैं बल्कि वन गुज्जरों को उनके मवेशियों के लिए खाद्य पूरक खरीदने के लिए कर्ज भी देते हैं.
चूंकि, अब वन गुज्जर अपने प्रवास के दौरान कई गांवों से होकर नहीं गुजरते इसलिए उन्हें अपने दूध और दुग्ध उत्पादों को थोक के भाव बेचने की ज़रूरत होती है. वन गुज्जरों के नज़दीक रहने वाले ग्राम वासियों के लिए इसे थोक में खरीदना संभव नहीं होता. बाज़ार में इसी अंतर का दुग्ध व्यापारी फ़ायदा उठाते हैं. पशुपालकों को नगद भुगतान करने की बजाय लाला लोग यह दावा करते हैं कि वन गुज्जरों को उनके मवेशियों के लिए चारे के लिए दिए गए कर्ज की भरपाई उनके दूध के दाम के साथ हो गई है. सामान्य सा प्रतीत होने वाला यह व्यापारिक व्यवहार वन गुज्जरों को कर्ज, निर्भरता और शोषण के एक क्रूर चक्र में फंसा देता है.
कसाना का अपने मवेशियों के चारे के लिए वार्षिक 11,50,000 रुपये का हिसाब एक मोटा-मोटा अनुमान है. वास्तव में, उन्होंने ये खरीददारी कभी की ही नहीं. इसके बजाय आवश्यकता पड़ने पर लाला चारे को ख़रीद कर कसाना के डेरे पर पहुंचा देते हैं. इसलिए असली खरीददारी लाला करता है. इसके बदले में शराफ़त व दूसरे वन गुज्जरों को अपेक्षाकृत सस्ते दामों पर अपना दूध इन व्यापारियों को बेचना पड़टा है.
लेकिन वन गुज्जर जो दूध अपने लालाओं को बेचते हैं, उसका सीधा भुगतान उन्हें कभी नहीं किया जाता. कसाना 50 रुपये प्रति लीटर की दर से रोज़ 30 लीटर दूध बेचते हैं. लेकिन उन्हें कभी भी उनकी रोज़ाना की आय 1500 रुपये अदा नहीं की जाती जो मासिक आय में लगभग 45000 रुपये होती है. यह उन्हें कभी नहीं दिया जाता. इसके बजाय कसाना और दूसरे सभी वन गुज्जर जिनका मैंने साक्षात्कार लिया, आमतौर पर किसी चीज़ की ज़रूरत होने पर, अपने लालाओं से पैसे मांगते हैं. वे उन्हें ज़रूरी चीज़ें खरीदने के लिए हर हफ़्ते दो या तीन बार 500-1000 रुपये के बीच मामूली रकम देते हैं. दूध के भुगतान के रूप में वन गुज्जरों को दिए जाने वाले बाकी पैसे को, पशुचारे के लिए लाला के बकाये के पुनर्भुगतान के एक हिस्से के रूप में मान लिया जाता है.
मैंने दर्जनों वन गुज्जरों से पूछा क्या उन्हें इस बात का अंदाज़ा है कि उनके ऊपर लाला का कितना बकाया है या लाला पर उनका कितना बकाया है, या दोनों पार्टियों के बीच हुए लेन देन का कोई ख़ास विवरण है क्या. किसी को भी इस व्यापार के ब्योरे के बारे में कुछ पता नहीं था, जबकि वे सालों से लेन-देन कर रहे थे. हमजा कहते हैं – “ज़्यादातर वन गुज्जर अशिक्षित हैं और वे लेन-देन का रिकॉर्ड कभी नहीं रखते.” हमजा ने बताया कि कैसे लाला लोग मवेशियों के चारे के लिए होने वाले भुगतान को वन गुज्जरों के लिए एक बड़े बिना दर्ज किये गए कर्ज में बदल देते हैं. इसके परिणामस्वरूप, दूध की प्रत्येक आपूर्ति को मान लिए गए इस कर्ज के छोटे-छोटे पुनर्भुगतान के रूप में देखा जाता है. वन गुज्जर अंततः, एक बंधुआ मजदूर के रूप में फंस जाते हैं जो अपने पशुचारे के लिए और ज़रूरी सामान हेतु आवश्यक पैसे के लिए लालाओं पर निर्भर हो जाते हैं. वह अपने दूध को कम दाम पर बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं और लालाओं के अतिरिक्त किसी और को नहीं बेच पाते हैं.
हमजा कहते हैं कि स्थितियां अब ऐसी बन चुकी हैं कि वे अपने लालाओं से इतना डरते हैं कि उनसे कोई भी विस्तृत ब्यौरा नहीं मांग पाते. जब कसाना अपनी वित्तीय स्थितियां बता रहे थे, उसी समय एक दूसरे वन गुज्जर ने जोड़ा – “हम कभी भी कर्ज नहीं चुका पाते. मैं यहां एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता जो लाला के कर्ज में डूबा न हो.” फिर भी जैसा कि हमजा ने बताया था, वन गुज्जरों ने अपने नाम से पहचाने जाने से इनकार कर दिया कि कहीं लाला उन्हें दण्डित न करे. हमजा ने आगे कहा “यह एक अच्छा व्यापार है लेकिन सिर्फ़ लाला के लिए. वह यहां दर्जनों परिवारों के लिए, हर साल करोड़ों रुपये का पशुचारा खरीदते हैं, और उस पर भारी छूट लेते हैं. लेकिन हमारा कर्ज बाज़ार मूल्य पर तय होता है. बदले में लाला को हमसे सस्ते दाम पर दूध मिलता है और हमें जो मिलता है, उससे हम बमुश्किल जीवित रह पाते हैं.” कसाना ने आगे जोड़ा “इस दूध के व्यापार से हमें एकमात्र लाभ यह मिलता है कि हमें घर पर चाय के लिए दूध मुफ़्त में मिल जाता है.”
वन गुज्जरों से हुई पूरी बातचीत के दौरान उनमें लालाओं का डर साफ़ दिखाई दे रहा था. जिन वन गुज्जरों से मैंने बात की, उन्होंने अपने से सम्बंधित दूध व्यापारियों का संपर्क विवरण साझा करने से इस डर से इनकार कर दिया कि उन पर किसी भी रिपोर्टिंग से उनकी दैनिक आजीविका पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
नवम्बर की एक ठंडी दुपहर को राजाजी जंगल में, जब मैं एक डेरा में वन गुज्जरों के एक समूह से बात कर रहा था. तभी एक मिनी ट्रक के तेज़ हॉर्न ने हमारी बातचीत में बाधा डाली. वह समूचे डेरा का लाला था. ट्रक सबसे दूर स्थित झोपड़ी पर रुकी. उसमें से दो व्यक्ति तेजी से उतरे. उन्होंने डेरे की एक झोपडी के बाहर रखे बर्तन में से दूध पलटा. फिर वे दूसरी झोपड़ी में आये फिर अगली तक आये. अंततः दुग्ध व्यापारी ने डेरा की सभी झोपड़ियों से दूध ले लिया. कुल मिलकर तकरीबन 20-30 झोपड़ियों से. एक घंटे के अन्दर सारा दूध इकठ्ठा हो गया. लालाओं से दूध के बदले में किसी भुगतान की कोई बातचीत नहीं हुई.
मैंने व्यापारियों से बात करना चाहा. लेकिन वन गुज्जर इसके पूरी तरह से ख़िलाफ़ थे. मैंने उन्हें बार-बार आश्वस्त किया कि मैं उनसे सरल सवाल पूछूंगा, जिसका असर उनकी आजीविका पर नहीं पड़ेगा. उनमें से कई मेरे साथ लाला के पास तक आये और हम दोनों के चारों ओर जिससे हमारी बातचीत सुन सकें.
मैंने लाला से कहा – “वन गुज्जरों ने मुझे बताया कि आप उन्हें उनके मवेशियों के चारे के लिए हर साल दसियों लाख का कर्ज देते हो. और उनके दूध को पुनर्भुगतान के रूप में कम दाम पर खरीदते हो. मैंने आप जितना कर्ज देते हो और बदले में इस डेरे से जितना दूध लेते हो उसका हिसाब लगाया है. आप इस हानि उठाने वाले व्यापार को क्यों कर रहे हो?”
“मैं केवल वन गुज्जरों की मदद कर रहा हूं” दुग्ध व्यापारी ने जवाब दिया. वह व्यापारी ऋषिकेश शहर में एक बड़ी डेरी की दुकान चलाता है. वह प्रतिदिन वन गुज्जरों से लगभग 700 लीटर दूध खरीदता है. उसने कहा वन गुज्जरों की तरह ही वह भी बहुत कम कमाता है और अपने जीने के लिए संघर्ष कर रहा है. उसके इस दावे पर भरोसा नहीं किया जा सकता. क्योंकि वन गुज्जरों द्वारा दिए गए कर्ज के अनुमान से यह पता चलता है कि केवल उसी डेरे से उस व्यापारी पर दो करोड़ से अधिक का बकाया है. लेकिन वन गुज्जरों ने मुझे घेर लिया और इसके परिणाम को लेकर उनके अत्यधिक भय के कारण मैं लाला के दावों को चुनौती नहीं दे सका.
यद्यपि वन गुज्जर अभी भी स्वयं को बहुत गहराई से अपनी ख़ानाबदोश पशुचारी जीवनशैली से जुड़े हुए हैं, पर नई पीढ़ी दुग्ध अर्थव्यवस्था से दूर होती जा रही है. जीने के लिए, पर्याप्त धन न होने के कारण, कई वन गुज्जरों को अपनी आय का एकमात्र स्रोत – अपने मवेशी- बेचने का सहारा लेना पड़ता है. इसके महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता.
प्रत्येक वन गुज्जर अपने मवेशियों को अपने परिवार का हिस्सा मानता है. जैसे परिवार में बच्चों के नाम होते हैं वैसे ही उनके भी नाम होते हैं. उनका जीवन वास्तव में उनके मवेशियों के इर्दगिर्द ही घूमता है. पिछले सितम्बर में जिस बुजुर्ग वन गुज्जर के साथ मैं रुका था, उन्होंने मुझे बताया कि उनकी दिनचर्या उनके मवेशियों पर आधारित होती है. वे अपने पशुओं को चारा देने के लिए भोर में उठते हैं, उन्हें चराने के लिए बाहर ले जाते हैं, और दोपहर में उस वक़्त आराम करते हैं जब उनके मवेशी आराम करते हैं. यही दिनचर्या शाम को भी अपनाई जाती है. ज़्यादातर वन गुज्जर अपने मवेशी के प्रति सम्मान के कारण उनका मांस नहीं खाते. इसका बस एक ही अपवाद है, साल में एक धार्मिक दिन ईद-उल-अजहा पर. उस दिन जो वहन कर सकते हैं, उनके लिए यह अनिवार्य है कि वे मवेशी की बलि दें और उनका मांस खाएं. 70 साल के नूर मुहम्मद ने मुझे बताया “यह बलि चढ़ाने का त्यौहार है और हम इस दिन अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ की बलि देते हैं.” इसलिए समुदाय के अन्दर अपने मवेशियों को बेचना लगभग अकल्पनीय है और इससे नई दुग्ध अर्थव्यवस्था की अव्यावहारिकता का पता चलता है जिसमें वन गुज्जर अपने आपको फंसा पाते हैं.
थोड़ी अतिरिक्त आमदनी के लिए, विशेषकर गेंदीखाता और पथरी के पुनर्वास वाले इलाके से बहुत से गुज्जर नौजवान, शहरों में छोटी-छोटी मजदूरी करने जाते हैं. वे प्रायः अपने साथ जंगल से दोस्तों और रिश्तेदारों को भी ले जाते हैं. गुलाम रसूल कहते हैं कि वे जानते हैं कि कर्ज का यह दुष्चक्र और निर्भरता कैसे ख़त्म होगी. लेकिन वह नौजवान पीढ़ी को भी दोष देते हैं जो अपनी न्यूनतम में जीवन बिताने की जीवनशैली छोड़ कर ज़्यादा खर्च कर रहे हैं. वह आगे कहते हैं – “वे हर महीने 200 से 300 रुपये का मोबाइल रिचार्ज कराते हैं.” 26 साल के हमजा का मानना है कि पुराने दिनों में वन गुज्जरों का जीवन स्तर अच्छा था. यह गिरावट सिर्फ़ हाल के दशकों में आई है. “यह तब शुरू हुआ जब जंगल के प्रति हमारे स्वामित्वबोध पर हमला हुआ. और जंगल पर हमारा अधिकार नहीं रहा तथा इसी के विस्तार में, हमारे जीवन पर भी हमारा कोई अधिकार नहीं रहा.”
Hindi translation by Manish Azad. Read the original in English here.