परस्पर नुकसान: उत्तराखंड में वन गुज्जरों के बिना वनों पर और वनों के बिना वन गुज्जरों पर होने वाले गंभीर परिणाम
“हम सदियों से इन जंगलों का हिस्सा रहे हैं, हमारा जंगल के साथ सहअस्तित्व है और एक तरह से हम इस जैव विविधता का हिस्सा हैं.” यह कहना है भारत के उत्तराखंड राज्य में, वन गुज्जर समुदाय के एक सदस्य, 26 वर्षीय मीर हमजा का. इस उत्तरी हिमालयी राज्य के गहन जंगलों में, वन गुज्जर एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं जो वन संरक्षण में एक व्यापक संघर्ष को चिन्हित करती है. जहां परंपरागत रूप से जंगल में रहने वाले समुदाय प्रकृति के साथ सदियों से सह अस्तित्व में रहने के बावजूद बेदखली का सामना कर रहे हैं.
हाल के दशकों में जैव विविधता की हानि और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण उत्तराखंड के पहाड़ों में जंगल की आग बढ़ने लगी है. हमजा के अनुसार जंगल से वन गुज्जरों के विस्थापन और उनके प्रवास मार्ग में होने वाली बाधा ने इस आग को और बढ़ाने का काम किया है.
वन गुज्जर मुस्लिम, अर्ध घुमंतू, पशुपालक गुज्जर (इन्हें गुर्जर भी कहा जाता है) समुदाय हैं, जो हिमांचल प्रदेश उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और जम्मू और कश्मीर के जंगलों में फैले हुए हैं. उनका मुख्य पेशा सामान्य तौर से गोजरी भैंस कही जाने वाली पहाड़ी भैंसों का पालन-पोषण है. अर्ध घुमंतू समुदाय के रूप में वे गर्मियों में ऊपरी हिमालय के ऊंचाई वाले जंगलों में चले जाते हैं और जाड़ों में शिवालिक के जंगलों के पहाड़ी हिस्सों में लौट आते हैं, और अपने मार्ग में वे कस्बों और गांवों में दुग्ध उत्पाद बेचते हैं.
उत्तराखंड के पर्यावरणीय संकट के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मौसमी प्रवास के दौरान, वन गुज्जर वन पारिस्थितिकी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जैसे जंगल की आग और मनुष्य-पशु संघर्ष को रोकना. हालांकि, कोर्ट और अधिकारी उन्हें घुसपैठिये के रूप में देखते हैं, लेकिन ढेर सारे सुबूत प्राकृतिक तरीके से आग बुझाने से लेकर जल स्रोतों को बनाये रखने तक उनके परंपरागत व्यवहारों के बारे में बताते हैं. ये वस्तुतः जंगल की आग को रोकने में मददगार होते हैं और निरंतर असुरक्षित हिमालयी पारिस्थिकी तंत्र में जैव विविधता को संरक्षित कने में मदद करते हैं.
उत्तराखंड में जंगल की आग
जहां भी वन गुज्जर पहाड़ियों में बसते हैं, वे मिटटी और पेड़ की शाखाओं का उपयोग करके झोपड़ियों का एक समूह बनाते हैं, जिन्हें डेरा कहा जाता है. प्रत्येक परिवार का एक डेरा होता है और जब वे प्रवास करते हैं तो कई परिवार मिल कर यात्रा करते हैं.
इसी साल 11 जून की एक गर्म दोपहरी को हरिद्वार के श्यामपुर रेंज के नज़दीक दासोवाला वन गुज्जर डेरा में आग लग गई. वन गुज्जरों ने आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन असफल रहे. पुलिस और फायर ब्रिगेड को सूचित किया गया और वे आधे घंटे में वहां पहुंच गए. स्थानीय मीडिया रिपोर्ट के अनुसार आग बुझाने वालों को आग पर काबू पाने में कुल तीन घंटे लगे और सावधानी के तौर पर पांच फायर यूनिट वहीं पर तैनात रही. इस आग में 80 झोपडियां जल गई और तकरीबन 100 के आस-पास जीवित पशु जल गए.
जबकि, पुलिस का दावा है कि डेरा की आग डेरा की एक झोपड़ी से उठी. लेकिन वन गुज्जर इसे नहीं मानते. पिछले अक्टूबर में, हरिद्वार में इस घटना के एक चश्मदीद से जब मैं मिला था तो उसने बताया कि नज़दीक में लगी जंगल की आग में से एक आग का टुकड़ा उड़ता हुआ आया और डेरा की एक झोपड़ी पर गिरा जो जल्द ही रिहायशी इलाके में फ़ैल गई.
हमजा ने भी यही बताया “दोपहर का समय था. सभी लोग आराम कर रहे थे. जंगल में लगी आग में से एक आग के टुकड़े से यहां आग लगी.” उन्होंने आगे कहा कि पशुपालक आमतौर से दोपहर में अपने मवेशियों के साथ आराम करते हैं. इसी साल की शुरुआत में उत्तराखंड के गढ़वाल के मसूरी के नज़दीक एक वन गुज्जर लड़का जंगल की आग से ही मर गया था.
अप्रैल में एक अन्य उल्लेखनीय घटना में, पर्यटन शहर नैनीताल के नज़दीक के जंगलों में आग लगी और सरकारी अनुमान के अनुसार यह आग कुल 800 हेक्टेयर में फ़ैल गई. आग इतनी विकराल थी कि बताया जाता है कि यह अन्तरिक्ष से भी दिखाई दे रही थी.
एक खबर के अनुसार, यूरोपियन स्पेस एजेंसी के सेंटिनल 2 सेटलाइट से खींची गई तस्वीर यह दिखाती है कि राज्य के कई हिस्सों के ऊपर भीषण आग के कारण आकाश में धुंए के बाल छाये हुए हैं. भारतीय वायुसेना के हेलीकाप्टर की सहायता से आग बुझाए जाने से पहले यह लादियाकाता और नैनीताल भवाली रोड के चीड़ के जंगलों में फ़ैल चुकी थी. आग को बुझाने के लिए भारतीय वायुसेना के हेलीकाप्टर MI 17 को एक दिन पहले उस वक्त लगाया गया जब यह आग खतरनाक तरीके से नैनीताल हाईकोर्ट कॉलोनी तक आ चुकी थी और एयर फ़ोर्स बेस के नज़दीक तक पहुंच गई थी ,जहां बहुत ही संवेदनशील उपकरण रखे हुए थे.
गोविंदबल्लभ पन्त इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट (GBIHED) में कार्यरत एक वैज्ञानिक डॉ. जी.सी.एस. नेगी कहते हैं कि बारिश में कमी और तापमान का बढ़ने जैसे पर्यावरणीय कारणों से जंगल में अचानक आग लग जाती है. इस साल राजधानी देहरादून से लेकर दूसरे मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच गया था. मौसम वैज्ञानिक और विशेषज्ञ यह बताते हैं कि क्षेत्र में बारिश और बर्फ़बारी के अनियमित पैटर्न के पीछे, एक बड़ा कारण सक्रिय अलनीनो परिघटना है. अलनीनो एक समुद्री परिघटना है जो समुद्रीय तापमान में महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार है और ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में भूमध्य रेखा क्षेत्र पर वातावरण की परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार है.
उत्तरखंड में जंगल की आग बढ़ती चिंता का विषय है. 2002 में जंगल की आग की संख्या 922 थी, जो 2019 में बढ़कर 41,600 हो गई. इसके कारण जानवरों और वनस्पतियों का बड़ा नुकसान होता है तथा जैव विविधता नष्ट होती है. जंगल की आग से भू क्षरण भी होता है. हमजा कहते हैं कि “पक्षी जो कि बीजों को यहां-वहां ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जंगल की आग के कारण अपना प्राकृतिक वास खो देते हैं, जिससे उस क्षेत्र में घास का फिर से उगना प्रभावित होता है. इसके अलावा, हमारी भैंस जो कि हिमालय के निचले इलाके से बुग्याल (अधिक ऊंचाई पर मौजूद घास का मैदान) की ओर प्रवास करते हैं, आते-जाते हुए बीजों को यहां-वहां बिखेरते हैं जिससे जंगल की जैव विविधता बनाये रखने में मदद होती है.”
चूंकि, यह समुदाय वन पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत अधिक निर्भर है इसलिए आग लगने की बढ़ती घटनाएं वन गुज्जरों को बहुत बुरी तरह प्रभावित करती हैं.
जंगल की आग किसी भी अन्य की तुलना में वन गुज्जरों के जीवन को कहीं ज़्यादा खतरे में डालती हैं क्योंकि वे जंगलों में बहुत अन्दर रहते हैं. हमजा कहते हैं “जंगल की आग से बड़ी मात्रा में घास के मैदान नष्ट होते हैं, जिस पर हम अपने पशुओं को चराते हैं और इस कारण हमारा समुदाय जंगल की आग से बहुत अधिक प्रभावित होता है.” हमजा ने वन गुज्जर ट्राइबल युवा संगठन स्थापित किया किया है और इसके माध्यम से अपने समुदाय के नौजवानों के बीच वन संरक्षण और भूमि अधिकार के बारे में जागरूकता फैलाते हैं.
वन गुज्जर : अतिक्रमणकारी या रक्षक?
जंगल की विनाशकारी आग का खुद सामना करने के बावजूद, जंगल को बचाने के नाम पर कोर्ट द्वारा किये गए हस्तक्षेप ने वन गुज्जर समुदायों के संघर्षों को कई गुना बढ़ा दिया है. 2016 में, एक स्वतः संज्ञान लिए गए केस में न्यायाधीश राजीव शर्मा और आलोक सिंह की नैनीताल हाईकोर्ट बेंच ने, उत्तराखंड में जंगल की आग के बढ़ते मुद्दे को संबोधित किया. अपने आर्डर में हाईकोर्ट ने वन गुज्जरों को अतिक्रमणकारी कहा. एक ‘एमिकस क्यूरी’ की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वन गुज्जरों ने सोलह हज़ार हेक्टेयर जंगल भूमि का अतिक्रमण किया है.इसके आधार पर कोर्ट ने एक कठोर निर्णय सुनाया. “आज से एक साल के भीतर वन भूमि का अतिक्रमण करने वाले गुज्जरों को हटा दिया जाये.” ऐसा करते हुए कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण यथार्थ को नज़रंदाज़ किया – वन गुज्जर भी जंगल निवासी हैं और वे परंपरागत रूप से जिस पर्यावरण के साथ रहते आये हैं उसके साथ वे भी कष्ट उठाते हैं.
कोर्ट ने आग बुझाने के उपकरणों को विकसित करने और निगरानी क्षमता बढ़ाने पर ज़ोर दिया. उसने आग बुझाने के सघन उपायों की अनुशंसा की जिसमें शामिल है – पूर्व चेतावनी सिस्टम, तत्काल काम पर लगने वाली विशेषज्ञ टीम. अगर आग भीषण होती है और लम्बे समय तक चलती है तो वन अधिकारियों और दोषियों दोनों के ख़िलाफ़ कड़े जुर्माने की अनुशंसा भी कोर्ट ने की. इसने देशज और जंगल में रहने वाले समुदायों को भी वन नीति बनाने में शामिल करने का सुझाव दिया और वन सम्पदा पर उनके अधिकारों को चिन्हित किया. लेकिन इसमें वन गुज्जर शामिल नहीं थे.
हमजा का संगठन VGTYS वन गुज्जरों के बीच काम करता है और अनुसूचित जनजाति और अन्य वन निवासी समुदाय (Recognition of Forest Rights) ऐक्ट 2006, जिसे सामान्य तौर पर FRA कहा जाता है, के तहत वन गुज्जरों को वन अधिकारों पर अपना दावा पेश करने में उनकी मदद करता है. उनके अनुसार उत्तराखंड की नौकरशाही में बहुत पहले से ही यह धारणा स्थापित है कि वन गुज्जर वन भूमि पर अतिक्रमण करने वाले लोग हैं. वन गुज्जर राज्य की जनजाति सूची में अधिसूचित नहीं हैं और पिछले कई दशकों से वे अनेकों बेदखली अभियान का शिकार बने हैं. इसके बावजूद कि औपनिवेशिक काल के रिकॉर्ड इस क्षेत्र में वन गुज्जरों की उपस्थिति को साबित करते हैं, वन गुज्जर समुदाय के लिए जंगल के अन्दर और बाहर स्थान तेजी से सिकुड़ता जा रहा है.
वन गुज्जरों पर शोध कर रहे अध्येता प्रणव मेनन ने The Bastion में छपे अपने लेख में कहा है “इसने जंगल के अंदर आग लगने की कुछ घटनाओं की ज़िम्मेदारी को समुदाय के ऊपर पर डाल दिया और संरक्षित क्षेत्र से उनकी बेदखली का आदेश दे दिया गया.”
इसके दो साल बाद हाईकोर्ट, कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व से वन गुज्जरों की बेदखली और वहां से 57 परिवारों के पुनर्वास के लिए उत्तराखंड सरकार की बनाई नीतियों पर एक केस की सुनवाई कर रहा था. हालांकि, कोर्ट ने एक बार फिर वन गुज्जरों को वन भूमि का अतिक्रमण करने वाला बताया .लेकिन कोर्ट ने सरकार को भी लताड़ लगाई क्योंकि इस केस में प्रतिवादी सरकार उन “अतिक्रमण करने वाले” परिवारों को क्षतिपूर्ति और उनका पुनर्वास करने का प्रयास कर रही थी जिन्हें कि बेदखल किया जाना था. न्यायाधीश राजीव शर्मा और लोकपाल सिंह की बेंच ने अपने आदेश में कहा –
वन गुज्जर, वन्य जीवन के लिए एक सतत खतरा हैं. हालांकि, राज्य सरकार उन लोगों को बचाने का तुरंत निर्णय ले लेती है जिन्होंने नदियों के किनारे और उनकी तलहटी का अतिक्रमण किया है. कोर्ट इस तथ्य का न्यायिक संज्ञान ले सकती है कि राज्य सरकार रिस्पना नदी के किनारों की ज़मीन और रिस्पना नदी की तलहटी का अतिक्रमण करने वाले लोगों को बचाने के लिए एक अध्यादेश लेकर आई. कानून का शासन कायम रहना चाहिए, अराजकता नहीं. प्रथम दृष्टया वन गुज्जरों के पुनर्वास के लिए लिया गया प्रस्ताव लोक नीति के विरुद्ध है.
वास्तव में, जंगल की आग को काबू में रखने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप वन गुज्जरों को और ज़्यादा हाशिये पर ढकेल देता है. इसी बीच वन प्रबंधन में स्टाफ़ की बहुत ज्यादा कमी के कारण जंगल की आग का मामला और ज़्यादा बिगड़ गया है. हाईकोर्ट के सामने प्रस्तुत रिपोर्ट में राज्य ने यह स्वीकार किया है कि 2021 तक सहायक वन संरक्षक के 82% पद और वन रक्षक के 65% पद खाली थे.
विनाशकारी जंगल की आग और जंगलवासी के रूप में उनकी भूमिका को चिन्हित करने में असफ़ल रही व्यवस्था के बीच फंसे, वन गुज्जर एक असुरक्षित और अनिश्चित जीवन जी रहे हैं. नेशनल पार्क और अभयारण्यों के लिए जंगल में आभासी सीमाओं के निर्माण के बाद से, वन गुज्जरों की जंगलों तक पहुंच उत्तरोत्तर कम हो गई है. उनके प्रवास के रास्तों को भी उनके लिए दुर्गम बना दिया गया है. इस कारण से उन्हें रात में अपने मवेशियों के साथ सड़क मार्ग से जाने को मजबूर होना पड़ता है, जब ट्रैफिक कम होती है.
वन गुज्जर जंगल को संरक्षित करने के लिए, अपने प्रवास पर ज़ोर देते रहे हैं. यही चीज़ उनके ख़िलाफ़ चली गई. वन विभाग ने इसका इस्तेमाल उन्हें वन अधिकार अधिनियम (2006) के तहत सुरक्षा से वंचित करने के लिए किया. FRA के लागू होने के बाद से कई वन गुज्जरों और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले नागरिक समाज समूहों ने जंगल के अधिकारियों के समक्ष यह दावा पेश किया कि वे उन्हें कानून के तहत “अन्य पारंपरिक जंगल निवासी समुदाय” के रूप में चिन्हित करें. राइट्स एंड रेसोर्सेज़ द्वारा समर्थित 2019 के एक अध्ययन से पता चला है कि उत्तराखंड में दायर 6,500 से अधिक FRA दावों में से, राज्य सरकार ने एक भी व्यक्तिगत वन अधिकार या सामुदायिक वन अधिकार टाइटल जारी नहीं किया है.
इस समुदाय के लिए जंगल के बाहर का जीवन भी निरंतर असुरक्षित होता जा रहा है. हाल के वर्षों में, हिंदुत्व समूहों से जुड़े गांव वाले वन गुज्जरों को उनकी मुस्लिम पहचान के कारण निशाना बना रहे हैं. वन गुज्जर अपनी वेश भूषा के कारण आसानी से पहचान में आ जाते हैं. समुदाय के अधिकांश बड़ी उम्र के लोग एक कुरता, एक लुंगी और एक पगड़ी पहनते हैं.
पहचान न बताये जाने की शर्त पर एक वन गुज्जर युवा ने कहा “जबसे राज्य में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है, वन गुज्जरों को केवल मुसलमानों के रूप में देखा जाता है, जनजाति के रूप में नहीं.
हालांकि, कि हम हरेक दावा सभी आवश्यक कागज़ात के साथ बहुत सावधानी से दाख़िल करते हैं, लेकिन यह हमेशा नौकरशाही में फंस जाता है और कई बार यह पूरी तरह से निरस्त कर दिया जाता है.”
जंगल के साथ वन गुज्जरों का रिश्ता
रिपोर्टर से बात करने वाले सभी वन गुज्जरों ने इस बात का ज़ोरदार तरीके से खंडन किया कि क्षेत्र में उनकी उपस्थिति के कारण जंगल में आग लगती है. वन गुज्जर समुदाय के 31 वर्षीय नेता शमशाद ने ज़ोर देकर कहा “जंगल की आग को हम ही रोकते हैं.” वन भूमि में आग लगने के अत्यधिक ख़तरे के ख़िलाफ़ पशुपालक समुदायों के पशु चराने की भूमिका पर अध्येताओं के एक समूह ने अध्ययन किया है. इस अध्ययन के अनुसार “घुमंतू पशु शहर की बाहरी भूमि के टिकाऊ प्रबंधन में अपनी भूमिका निभाते हैं, उनके चरने के कारण सीमान्त जंगलों में ईंधन का संचय नहीं हो पाता. इस अध्ययन ने जंगल की आग के लिए प्रकृति आधारित हल के फ़ायदों के बारे में इशारा किया, जिसमें घुमंतू पशुओं का चरना भी शामिल है.”
शमशाद ने आगे विस्तार से वन गुज्जरों के उन व्यवहारों के बारे में बताया जिससे आग को रोकने में मदद मिलती है. उन्होंने रेखांकित किया कि भैंस सीधी रेखा में चरती हैं जिससे घास व जंगली वनस्पतियों से मुक्त एक साफ़ रास्ता तैयार हो जाता है. शमशाद ने आगे कहा “हम इस रास्ते से सूखी पत्तियों को भी हटा देते हैं.” शमशाद ने ज़ोर देकर कहा कि यह समुदाय के बीच एक परंपरागत व्यवहार रहा है. शमशाद कहते हैं कि “आग लगने के समय हमारे ये प्रयास एक प्राकृतिक बाधा उत्पन्न करते हैं जिससे नुकसान कम से कम होता है. शमशाद ने जंगल के साथ समुदाय के लम्बे स्थाई रिश्ते को चिन्हित किया और जंगल के संरक्षण में उनकी भूमिका पर ज़ोर दिया.
वन गुज्जरों और उनके पशुओं द्वारा बनाये ये साफ़ रास्ते वस्तुतः एक आग रेखा का निर्माण करते हैं जो आग को रोकने में एक प्रभावी भूमिका निभाती है. आग रेखा जिसे आग अवरोधक रेखा भी कहा जाता है, वह पतली पट्टी होती है जिस पर कोई वनस्पति नहीं होती और यह जंगली आग के फैलने में एक अवरोधक का काम करती है. यह बढ़ती हुई आग को इस पट्टी पर ईंधन की कमी के कारण रोक देती है. जंगली आग के प्रबंधन में दूसरे आग बुझाने वाले तरीकों के साथ-साथ इस अग्नि रेखा का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. नैनीताल हाईकोर्ट को उत्तराखंड के वन विभाग के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक राजीव भरतारी ने बताया था कि इस रणनीति का इस्तेमाल सरकार भी करती है.
हाल का एक आर्थिक सर्वेक्षण यह बताता है कि उत्तराखंड के जंगलों का 30% चीड़ के वृक्षों से अच्छादित है. उनकी इस बहुलता के बावजूद ये चीड़ के पेड़ इस इलाके में देशज नहीं हैं. अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी के दौरान रेलवे और शहरी विकास के लिए लकड़ी की बढ़ती मांग के लिए यहां पर चीड़ के पेड़ लगाये. अंग्रेज़ जंगलों को आर्थिक संसाधन के रूप में देख रहे थे. जबकि, चीड़ के पेड़ों को उनकी तेज वृद्धि और कीट रोधी होने के कारण पसंद किया जा रहा था. लेकिन चीड़ के पेड़ों ने स्थानीय जैव विविधता को नकारात्मक रूप से भी प्रभावित किया. फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के आर.एफ़.रावत ने रेखांकित किया है कि चीड़ के वृक्ष आसपास के जंगलों का अतिक्रमण करते हैं और अपनी पत्तियों में ख़ास तरह का रसायन होने के कारण दूसरी प्रजाति के पौधों की वृद्धि को रोकते हैं.
इसके अतिरिक्त, चीड़ के पेड़ अत्यधिक ज्वलनशील होते हैं और जंगल की आग में सहायक होते हैं. वन संरक्षण के मुद्दे पर स्थानीय कोर्ट और कानून के दफ्तरों के साथ लगातार जुड़े रहने वाले हमजा कहते हैं “ चीड़ के पेड़ हिमालयी मौसम के अनुकूल नहीं हैं. न सिर्फ़ वे दूसरे पौधों की वृद्धि को रोकते हैं बल्कि गर्मियों में हर तरफ़ जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, ये पेड़ जंगल की आग के लिए खतरा होते हैं और उसे और बढ़ाने में सहायक होते हैं.”
उत्तराखंड के जंगलों के लिए केवल जंगल की आग ही एकमात्र खतरा नहीं है. हाल के एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड के नीचे के शिवालिक क्षेत्र, “रेड सेज” या “लताना कमारा” कहे जाने वाले पौधों की एक आक्रमणकारी प्रजाति के कारण बंजर होने की समस्या झेल रहे है. ये आक्रमणकारी प्रजाति के पौधे चिड़ियों द्वारा इनका बीज बिखेरे जाने के बाद नई जली हुई ज़मीन पर अपना आधिपत्य बना लेते हैं. ये ज़हरीली प्रजातियां वनस्पतियों को प्राकृतिक तरीके से नहीं उगने देतीं, जो कि स्थानीय प्रजातियों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण हैं. वन गुज्जर अपने पशुओं को चराने के उद्देश्य से इन ज़हरीले पौधों को सक्रियता से उखाड़ते रहते हैं.
वन गुज्जर समुदाय के एक नेता, मोहम्मद साफ़ी ने बताया “इन जंगली खरपतवार को हटाने का काम जिन फ़ॉरेस्ट रेंजरों को दिया जाता है वे कुछ ख़ास नहीं करते. वे जानते हैं कि कोई भी जंगलों में यह देखने नहीं जाएगा कि उन्होंने पूरी तरह से खरपतवार को उखाड़ा है कि नहीं. लेकिन हमें यह करना पड़ता है क्योंकि जंगल हमारा घर है और हम जानते हैं कि यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो क्या होगा.
एन.के.कम्बोज, पंकज बहुगुणा और ओ.के. बेलवाल की 2014 के एक अध्ययन में इस बात का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है कि क्या वन गुज्जरों का राजाजी नेशनल पार्क में रहना वहां की पारिस्थिकीय तंत्र के लिए अच्छा होगा? इन तीन अध्येताओं के अध्ययन का यह निष्कर्ष है कि – “वन गुज्जरों ने राजाजी नेशनल पार्क की जैव विविधता के साथ अपना रिश्ता स्थिर कर लिया है. पार्क के कार्यक्रमों में स्थानीय समुदायों और वन गुज्जरों को शामिल किया जा सकता है ताकि पार्क के मूल्यों के साथ ही जंगली जानवरों को भी बचाया जा सके.” अब राजाजी नेशनल पार्क की सीमा के अन्दर पड़ने वाला जंगल, एक सदी से अधिक समय से, सर्दियों में पशुपालक समुदाय के लिए चरने का मैदान बना हुआ है. स्वयं वन विभाग की 1952 की एक वार्षिक कार्यकारी योजना में, इस क्षेत्र में चरने की गतिविधि का विवरण दर्ज है.
हालांकि 1985 में पार्क की घोषणा होने और 2015 में टाइगर रिज़र्व अधिसूचित होने के बाद से जंगल में चरने का स्थान लगातार सिकुड़ता गया है. विभिन्न दर्ज साक्ष्यों के अनुसार, पार्क में वन गुज्जरों को वन विभाग के हाथो भयंकर दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. लगभग 1000 वन गुज्जर परिवार के पास राजा जी अभ्यारण्य से पुनर्वासित होना स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था. आज, अभी भी लगभग 1600 वन गुज्जर परिवार पार्क के भीतर निवास करते हैं.
शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकला कि “वन गुज्जरों की अनुपस्थिति से उस इलाके से स्थानीय समुदायों के पलायन की सम्भावना बढ़ जाती है. जब वन गुज्जर अपने पालतू जानवरों के साथ पार्क में नियमित रहते हैं तो जंगली जानवर उनका इलाका पार कर इधर आने में हिचकते हैं. इस तरह, जंगली जानवर वन गुज्जरों के पालतू पशुओं पर आक्रमण करते हैं. वे इस नुकसान को झेलना ही होता है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ वे पास के स्थानीय समुदायों और उनके पालतू जानवरों की ज़िन्दगी बचा रहे होते हैं. वे जंगली जानवरों और स्थानीय समुदायों के बीच एक मध्यस्थ इकाई का काम कर रहे हैं.”
मीर हमजा भी इसी निष्कर्ष को दोहराते हैं. “केवल मानव और जानवरों के बीच के संघर्ष को देखिये. हम जंगल में रहते थे, फिर भी हम पर जंगली जानवरों के हमले के बहुत कम केस हैं. अब, चूंकि हमें जंगल छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया है , जंगल से घिरे इस इलाके में इन्सान और जंगली जानवरों का संघर्ष उल्लेखनीय रूप से बढ़ गया है. यह सिद्ध करता है कि हम बिना किसी विवाद के सह अस्तित्व में रहते थे.” इस अध्ययन और कई विशेषज्ञों ने मानव आवास के आस-पास तेंदुए के हमलों के कारणों के रूप में जंगल की आग, निवास स्थान का नुकसान, गर्म महीनों के दौरान शिकार और जल स्रोतों की कमी का हवाला दिया है. वन गुज्जर जंगलों में रहने के दौरान जंगली जानवरों के इन आक्रमणों को रोकने में महत्वपूर्ण तरीके से अपनी भूमिका निभा सकते थे.
राज्य वन विभाग के आकड़े यह बताते हैं कि सन 2000 और 2010 बीच तेंदुए के हमले से उत्तराखंड में 244 लोगों ने अपनी जान गंवा दी है और 2011- 21 के बीच 234 लोगों ने अपनी जान गंवाई. सिर्फ़ 2022 में कम से कम 20 लोगों की जान गई है. 2021-2022 में प्रकाशित तितली ट्रस्ट की एक रिपोर्ट कहती है “ उत्तराखंड में कोई भी ऐसा महीना नहीं होता जब तेंदुआ, चीता, हाथी या अन्य जंगली जानवरों के हमले की खबर न आती हो. तेंदुए का हमला सबसे ज़्यादा और सबसे भीषण होता है.”
हमजा बताते हैं कि “जंगल में हमें अपने मवेशियों के लिए लगातार पानी के स्रोतों की ज़रूरत होती है. इसके लिए हम अपनी बसाहट के नज़दीक उग्गल (इसे सूता भी कहा जाता है) कही जाने वाली एक देशज जल संचयन प्रणाली बनाते हैं. उग्गल का पानी सिर्फ़ हमारे मवेशी ही इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि गर्मियों में जंगल में जिन जंगली जानवरों को पानी नहीं मिलता, वे भी इसका इस्तेमाल करते हैं. जब हमें जंगल छोड़ने के लिए मजबूर किया गया तो जंगल में पोखरा खोदने के लिए कोई नहीं बचा. जंगली जानवर पानी और उग्गल की खोज में मानव बसाहट के नज़दीक आ जाते हैं. जंगल से हमें बेदखल करना जंगल के लिए भी एक नुकसान है.” पिछले दो दशकों से प्रत्येक वन गुज्जर परिवार अपने डेरा और उग्गल की देखभाल के लिए कम से कम एक सदस्य को वहां छोड़ देते हैं. पहले, जब समूचा परिवार प्रवास कर जाता था तो वन अधिकारी और जंगल के आसपास के स्थानीय लोग उनके डेरा को तोड़ देते थे और उनके द्वारा छोड़ी गई चीज़ें व लकड़ी अपने साथ ले जाते.
बहुत से अध्येता और पर्यावरण ऐक्टिविस्ट वन संरक्षण प्रयासों के लिए देशज लोगों की और अधिक शामिलियत का आह्वान करते रहे हैं. फिर भी, उनके इतिहास और जंगल की जैव विविधता की समृद्धि में उनकी भूमिका को नज़रंदाज़ करके उत्तराखंड के वन गुज्जरों को लगातार अवैध अतिक्रमणकारियों के रूप में देखा जाता है. आल इण्डिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपुल के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं “प्राचीन काल से ही देशज आबादी जंगल की संरक्षक रही है. संरक्षण के नाम पर देशज आबादी को हटाना, जंगल और उसके संरक्षण के बारे में उनके समृद्ध ज्ञान और अंतर्दृष्टि से न सीखना बौद्धिक ग़लती और एक बुरा विचार है.”
Hindi translation by Manish Azad. Read the original in English here.